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________________ २४ देवीदास-विलास बुन्देलखण्ड में आज भी यह रोमांचक किंवदन्ती प्रचलित है कि एक बार वे अपने छोटे भाई कमल के साथ उसके विवाह के लिए आवश्यक वस्तुएँ खरीदने हेतु ललितपुर (उत्तरप्रदेश) जा रहे थे। रास्ते में घना जंगल पड़ता था। वहीं कहीं कमल पर एक शेर ने सहसा ही आक्रमण कर उसे मार डाला। इस अप्रत्याशित दुखद घटना ने कवि के मन को झकझोर डाला, किन्तु शीघ्र ही उनका विवेक जगृत हो उठा और अपने को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा “कर्मों की गति विचित्र हैं, इसे कोई नहीं टाल सकता।" तत्पश्चात् वे रास्ते में ही उसका दाह-संस्कार कर घर लौट आए। देवीदास स्नेह वश अपने उस भाई के लिए सब कुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार रहते थे। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि उसकी स्मृति को स्थायित्व देने के लिए ही वे गृहस्थ रूप में बने रहे और अपनी आध्यात्मिक कृतियाँ लिखते रहे। अपने लाडले सपूत की आकस्मिक मृत्यु से आहत अपनी माँ को ढाढस बँधाने के लिए, देखिए, उन्होंने कितने मार्मिक, पौराणिक उदाहरणों की चर्चा की है। वे कहते है- “हे माँ, देखो, संसार की गति कितनी विचित्र है। व्यक्ति जो सोचता है, वह कभी भी नहीं हो पाता। तुम जानती ही हो कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम को कहाँ तो सबेरे उठते ही पृथिवी-मण्डल का चक्रवर्ती पद प्राप्त करना था और कहाँ उसी सबेरे उन्हें यातनापूर्ण वनबास मिल गया। रावण ने सोचा था कि यदि वह राम के साथ युद्ध में जीत जायगा, तो सीता जी को राम के लिए वापिस लौटा देगा। किन्तु उसे युद्धस्थल में ही मृत्यु का वरण करना पड़ा। मैंने स्वयं भी सोचा था कि अपने भाई का धूमधाम के साथ विवाह करूँगा, किन्तु उसके पूर्व ही वह अकस्मात् चल बसा। माँ, काल की यह गति बड़ी ही विचित्र है। किन्तु इस विषम स्थिति में भी विवेक खो देने से प्राणी को कभी भी सद्गति नहीं मिल सकती। अतः इस शोक को धैर्यपूर्वक सहन करो, इसी में जीवन का सार है। (२) सच्चरित्रता कवि देवीदास का उपनाम भायजी था। बुन्देलखण्ड में आदर सूचक यह एक लोकप्रिय विशेषण आज भी प्रचलित है। जो व्यक्ति ओजस्वी वक्ता, तत्वज्ञाता, प्रभावक एवं प्रेरक प्रवचनकर्ता होने के साथ कवि, संगीतकार एवं समाज के सुखदुख में सदैव साथ देने वाला होता है, उसे “भायजी" की उपाधि से विभूषित किया १. अनेकान्त ११/७-८/२७५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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