________________
प्रस्तावना
११ तत्पश्चात् कवि के पिता “कैलगमा'' में आकर बस गए थे, जो अतिशय क्षेत्र अहार (टीकमगढ़) एवं बर्माताल (टीकमगढ़) नामक ग्राम के पास है। लेकिन बाद में देवीदास ने टीकमगढ़ के पास ही दिगौडा नामक ग्राम को अपना निवास-स्थल बना लिया। उन्होंने अपनी कई रचनाओं के समापन में दुगौडा ग्राम की चर्चा की है, जो इस प्रकार है
“कैलगमा पुनि ग्राम दुगौडह के सबही बस वासनहारे'।। बुद्धि, २/१६/५४ "ग्राम दुगौडे मध्य साल अठारह से सु फिर और धरौ। द्वादश.,” २/४/४८ “दुगौडो सुग्राम जामें जैनी की धुकार है"। प्रवचनसार प्रशस्ति.
जैसा कि पूर्व में बतलाया जा चुका है कि उनके पूर्वज भदावर-देश के "सीकसिकहारा" ग्राम में निवास करते थे। कवि के दिगौडा में निवास करने के दो प्रमुख कारण प्रतीत होते हैं। प्रथम तो, उसका उत्तम व्यापारिक-क्षेत्र का होना और दूसरा, आस्थावान् जैन-धर्मावलम्बियों का वहाँ बहुल-संख्यक होना।
कवि ने अनेक स्थानों पर बंजी' शब्द का प्रयोग किया है। यह बुन्देलखण्डीभाषा का शब्द है, जो कन्धे पर कपड़ा अथवा अन्य व्यापारिक सामग्रियाँ लादकर अभावग्रस्त ग्रामों में बेचने के अर्थ में रूढ़ हो गया है। कुछ लोग बैल अथवा घोड़े पर भी माल लादकर ग्रामों में बेचने जाया करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि दुगौडा ग्राम का, कपड़े के व्यापार की दृष्टि से विशेष महत्व रहा होगा। दूसरा. उन्होंने लिखा है कि, जैनों की यहाँ बड़ी धुकार थी। "धुकार" शब्द का अर्थ है धाक या प्रतिष्ठा। प्रतीत होता है कि इस ग्राम में ज्ञान, समृद्धि एवं धर्म की दृष्टि से जैनियों की बड़ी प्रतिष्ठा थी, इसीलिए कवि यहीं आकर बस गया था।
३. समकालीन राजा " कवि ने ग्रन्थ-प्रशस्ति में अपने समकालीन राजा सामन्तसिंह का उल्लेख किया है। यद्यपि बुन्देलखण्ड के इतिहास में सामन्तसिंह नामके अनेक राजाओं का विवरण उपलब्ध होता है, तथापि देवीदास ने जिस राजा सामन्तसिह का नामोल्लेख किया है, वह ओरछा के महाराजा वीरसिंह देवजू की परम्परा में आने वाले राजा पृथिवीसिंह का पौत्र था। वि. सं. १८०९ में राजा पृथिवीसिंह का स्वर्गारोहण हो जाने के पश्चात् उनके पौत्र सामन्त सिंह का राज्याभिषेक किया गया था। देवीदास का रचनाकाल १. “पूंजी ले पराई बंजु कीनौ महा खोटो है।।" (जोग. २/११/१३) २. “दुगौडो सौ ग्राम जामैं जैनी की धुकार है। (प्रवचनसार) ३. बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास, (लेखक गोरेलाल तिवारी), काशी नागरी प्रचारिणी
सभा. वि सं १९९० प १५५
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org