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चतुर्विशंतिजिन-साहित्य-खण्ड
४. एकेंद्री सैनी-असैनी पंचेंद्री परजंतउ कष्ट विषै। फरस चारि सै पाँच जीभ चौसठ सौ नासा। द्रग जोजन उनतीस सतक चौवन क्रम-भाषा।।१।। दुगुन असैनी लौ श्रवन वसु सहस धनुष फुनि सैनी। सपरस विर्षे कहौ नौ जोजन श्री मुनि।।२।। नौ रसन घ्रान नौ चच्छु प्रति सैंतालीस हजार गनि। दौ सै तिरसठ वारह श्रवन विषै छेत्र पटवान भनि।।३।।
३. इस पद का लेखक अज्ञात है। ४. मूल प्रति -सौसठ ५. मूल प्रति. -तिसठ
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