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________________ ३०३ चतुर्विशंतिजिन एवं अन्य पूजा-साहित्य-खण्ड कुँवरावर पुनि कीनी सुहर्ष, पौने चौवीस-सहस्त्र वर्ष। तिन” गन दुगुन करो सुराज, तज सर्व विभूति कियो इलाज।।१६।। वैसाखसुदी परमा सुछंद, तप लीनों तिहिं वासर नरिन्द। तपकाल सुकुँवरावर समान, वृक्ष तिलक सुतर-दीक्षा ठिकान।।१७।। तजि संग समेत सहस्त्र भूप, चितवत कारज आतम स्वरूप। हथिनापुर जह धर्मदत्तराय, भोजन तिहिं मध वसायं।।१८।। गऊ-दूध लियौं तिनिके सुमेह, नरनाथ महा धर्मज्ञ जेह। छदमस्त रहे षोडस सुवर्ष, उपजो पुनि केवलज्ञान सर्ष।।१९।। वर चैत्र सुदी त्रितीया सुलीन, अपराहनीक वेरा प्रवीन समवादिशरण जोजन सुचार, महिमा वरणति लहिये न पार।।२०।। तह स्वयंभूति आदिक सुथूल, गणधर पैंतीस कहे सु मूल। जतिवर गण साठ हजार और, वरणौं किंचित व्रतकी सुठौर।।२१।। शत साढ़े तीन सहस्त्र साठ, अजिया तिनिकी इकठी सु गांठ। श्रावक इकलाखक्रिया सुलीन, श्रावकनी लाख प्रत्यक्ष तीन।।२२।। छयालीस सहस पुनि सय साठ, गति सिद्वि गती तिनिको सुठाठ। सतपंच सहस उभय समन्त, वर अवधिज्ञान मंडित महंत।।२३।। वैक्रियरिद्वि वारे सुसांच, सतएक सु और हजार पांच। मनपर्यय ज्ञान विर्षे सुलीन, सत-साढ़े तीन सहस्त्र तीन।।२४।। दोसै अरु तीन-हजार भाखि, केवलज्ञानी वरणों सु साखि। वादी वरणें तहँ हजार दोय, जहं जक्ष गरूड़ नामा सु होय।।२५।। जक्षिन अनेक रूप तिसु जान, सुन आगम उक्ति प्रतीत मान। कुरुवंस विौं उपजे सुदेव, सम्मेदशिखरपर मोक्षलेव।।२६।। सोरठा परमा वदि वैशाख, मुक्त गये शुभ दिन विषै। अष्टकरम करि खाक, ते जिनवर बन्दों सदा।।२७।। ॐ ह्रीं श्रीकुन्थनाथजिनेन्द्राय महायं निर्विपामीति स्वाहा। गीतिका विधिपूर्व जो जिन बिम्ब पूजत द्रव्य अरु पुनि भावसों। अति पुण्यकी तिनकें सुप्रापत होय दीरघ आवसों।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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