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६. सम्बोध-प्रबोध - साहित्य - खण्ड
(१) हितोपदेश
सदगुर कहै सुनो रे भाई यह संसार असारा । या विच भ्रमत-भ्रमत इहि चेतनि लहियो वार न पारा ।। टेक
बसत निगोद काल बहु बीत्या कठिन देह त्रस धरनौ । वे जहाँ एक उस्वास स्वास महि जन्म अठारह मरनौ । १ ।
एक अंगुली के असंख मैं भाग जहा तन हीनौं । जामैं निवसत जीव रासि सम सिद्ध काल के तीनौं । । जहतैं जीव लबधि खय उपसम केवल कह्या अकेला । क्रम करि एक-एक इंद्रिनि की बडनवार सौं भेला । २ । प्रथवीकाई आदि वे इंद्री आदि धरी बहु काया । विकलत्रक परजाई भुगति करि पसु पंक्षी मैं आया ।। पसु परजाइ पाइ दुख देख्या भूख त्रषा तह भारी । बरषाकाल घाम जाडै मैं निसदिन देह उधारी । ३ ।
नरकमांहि जे जे दुख भुगते तिनि का नहीं ठिकाना । नरगति माहि दुख तन मन का को करि सकैं सुछाना ।। सुरगति विषै विषै की त्रष्णा देत महा अति पीरा । जासौं होत सबै सुर व्याकुल आकुल हृदौ सरीरा । ४। पुन्य पाप फल यह जग भीतर भुगती करम कमाई । बिना विवेख यही नरगति तूं वार अनंती पाई ।। करि करि विषयनिके रस राच्यौ क्रतकारित अनमोदै । पुनि छत्तीस प्रकृति बंधन करि पहुच इतर निगोदै । ५ । इतर निगोद अर्द्ध नवग्रीवक लौटे फिर्यौ सुघेरा । नाना भांति सुख-दुख भुगतैं कारज सर्यौ न तेरा । । देवधर्म गुरु ग्रंथ सत्य तूं सांचा पंथ न पाया। बिन सम्यक्त जीव त भटकत बहं ठिकाने आया । । ६ ।।
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