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विशिष्ट चित्रबन्ध-काव्यखण्ड (१४) सर्वतोमुख-चौबीसा बन्ध | तजि | राज | मती | गिर | नार | गए | वर | जोग | धरे | व्रत | आन | हियें | भजि काज जती | सिर भार | लए | धर | सोग | हरे | प्रत | जान | जिथे
त
आन
प्रत । जा
त | ग्यान
|
अजि | ताज | गती | तिर | पार | भए | सर | रोग | टरे | व्रत | ध्यान | दिय
सर्वतोमुख चौबीसा बन्ध तजि राजमती गिरनार गए वर जोगधरे व्रत आन हिौँ। भजि काज जती सिर भार लए धर सोग हरे मृत जान जियें।। रजि लाज हती खिर डार दए परभोग करे नृत ग्यान लिय। अजिता जगती तिर पार भए सर रोग टरे व्रतध्यान दियें।।
(जोग. प.२) (१५) कवित्त-बन्ध में कवित्त, अरिल्ल, चौपही, दोहा एवं सोरठा प्रीतम पुण्य समा | न | न | और | सुमित्र हैं | कोई समीप बखानैं या जग मैं सुखदा
ठौर पवित्र हैं | पुन्य प्रधान सयानैं पाप कलेस सदा न
धीर कुदान मैं | गर्भित है दुख ठा. इष्ट लगै करुता | इ | सु | वीर | प्रमान मैं | दोइ कहे कविता.
प्रीतम पुण्य समान न और सुमित्र हैं कोइ समीप बखानैं। या जग मैं सुखदाइक ठौर पवित्र हैं पुण्य प्रधान सयानैं।। पाप कलेस सदा न है धीर कुदान मैं गर्मित है दुख ठानें। इष्ट लगै करुताहिसु वीर प्रमान मैं दोइ कहे कविता.।।
___ (जोग प., १६) ध्यातव्य - (१) इस कवित्त में अरिल्ल, चौपही, दोहा एवं सोरठा छन्दों की योजना
की जा सकती है।
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