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संख्यावाची साहित्य खण्ड
१८७
अरी परै सुसाद की विगारि कीच काद की मदोर अष्टमाद की सुभाव संत कौ हरै । जनी हरामजाद की नकी मनौं कुलाद की परै सु ताहि खाद की कुबुद्धि गात मैं धरै ।। ४९ ।।
दोहा
संतनि तजि मति दोखिनी अति दुखदाइनि जानि । सुनौं भव्य यह की कथा कहलौं कहौं वखानि ।।
तेईसा
संतनि के मन में उतरी जिसकी अपकीरति ग्रंथनि गाई । दूतिय दुर्गति तैं नियरी परपोखिनि दोखिनि है दुखदाई ।। इंद्रिनि की पति राखन है प्रगटी विषयारस तैं गुरताई । औगन मंडित निंदित पंडित या दुरबुद्धि कुनारि कहाई ।। ५० ।।
दोहरा
कुमती पुरिष जगत्र महि धरत स्वांग बहुरूप । काम अंध दुरबंध पुनि बरनौं जंत स्वरूप । ।
छप्पय
काम अंध सो पुरिष सत्य करि सकै न कारज । काम अंध सो पुरिषु तासु परिनाम न आरज ।। काम अंध तह क्रपा मिलै इक रंच न कोई । काम अंध तैं अधम नहीं जग मैं पुनि सोई ।
गति नीच महादुख भोगवत सो सब काम कलंक फल ।
सो कामान करि छिनकमहि दहत सील तरुवर सबल । । ५१ ॥
दोहा
सीता षोडस मैं स्वरग पहुँची सुमति समेत । राउनादि नरकैं गए दुरमति कैं हित हेत । ।
सवैया चौवीसा सर्वतोमुख
हियारस काम बह्यौं रुख सोर हरी परनार गई मति तास । पियातसु राम रह्यौ मुख मोर घरी घर यार भई पति पास । । सिया जसुधाम लह्यौ सुख कोर धरी भरथार मई सति आस । जिया वसु जाम सह्यौ दुख घोर करी करतार ठई गति तास ।। ५२ । ।
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