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संख्यावाची साहित्य खण्ड
निज पर परख सुधर्म धुव सुद्ध परिनमन रूप । निज-निज गुन अलोकनौ सिव कारन चिद्रूप । । ३४ । । भैया तूं भ्रम-भूलि मति लगे और के साथ। अपनौ निज घट देखु तह तीनि लोक कौ नाथ । । ३५ ।।
हूंठ हाथ तन देहुरौ जामैं निरमल देव । मूरिख भयो फिरै कहां करत और की सेव । । ३६ ।।
जानत सब जिहि जानु तूं और न जाननहार । धंधै परे जगत्र जन स्वपर विवेख विसार ।। ३७।।
जो जानैं सो जानियें ध्यान धरिये जास । स्वपर भेद परगट जुदै तीनि लोक तिहि पास । । ३८।। बांधे विविध प्रकार जे अध्यावसा करि कर्म | कारन जाकौं निर्जरा सो श्री जिनवर धर्म ।। ३९ ।।
रहित सुभासुभ परिनमन विमल सुचेतन भाव । परम धुरंधर धरम सो सुद्ध वस्तु दरसाव । ।४०।। जजन भजन पर परिहरौ हृदै जगै जव ज्ञान । कर्म-धूलि लागै नहीं यहै पंथ निरवान ।। ४१ ।। सम्यकदिष्टि विना सुधी निज गुन लख्यौ न जाइ। जाके ध्यावत परम पद महिमा कही न जाइ।। ४२ ।। व्रत तप नियमादिक सहित स्वपर विवर्जित भेद । सो मूरिख मिथ्यामती करै अकारथ खेद । । ४३ ।। जो निरमल पद पारखी धारी व्रत तप सील । सो पहूँचे निरवान पद काटि कर्म वसु कील । । ४४।।
ए द्वादस विधि भावना भवि - जीवनि के काज । मूल पराक्रत देखि कैं भाषा करी अवाज । । ४५ ।। जो त्रिसुद्ध करि चिंतवै अगम अगोचर बात । जाकौं जग तरिवौ महासुगम समीप दिखात ।। ४६ ।। देवी अति मति मंद पुनि कहिवे कौं असमर्थ । बुद्धिवंत धरि लीजियो जह अनर्थ करि अर्थ | | ४७।।
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