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________________ प्रस्तावना ७५ (छ) गुण गुणों के माध्यम से भाषा में सौन्दर्य आता है। कवि ने माधुर्य, प्रसाद और ओज गुणों का प्रयोग अवसरानुकूल किया है। उनकी भाषा में प्रसाद और माधुर्य सर्वत्र दृष्टिगोचर होता हैं। प्रसाद गुण का आश्रय लेकर उन्होंने लोक प्रचलित सरल .. शब्दों द्वारा दर्शन के गढ़-तत्वों को भी मानव-हृदय तक पहुँचाने का सफल प्रयास किया है. उदाहरणार्थ "समकित बिना न तरयो जिया। लाख क्रोर उपास करि नर कष्ट सहत मरयो।।" पद., ४/ख/२३ इसी प्रकार माधुर्य गुण और लक्षणा शक्ति के निम्न सुन्दर उदाहरण दृष्टव्य हैं “दिपति महाअति जोर जिनवर चरण कमल दुति। देखत रुप सुधी जन जाकौ लेत सबै चितचोर।। कैंधो तप गजराज दई सिर भरि सैंदुर की कोर। मोह निसाकरि दूरि भयो कैंधो निरमल ज्ञान. सुभोर।।" पद. ४/ख/१८ (ज) कूटपद देवीदास ने “जोग-पच्चीसी" और बुद्धिवाउनी नाम की रचना में ऐसे अनेक पद्यों की रचना की है, जो कूट-पदों की श्रेणी में आते हैं। ऐसे पद्यों में प्रश्न और उत्तर दोनों ही निहित रहते हैं। इस दृष्टि से कवि देवीदास हिन्दी के जैन कवियों में अपनी अनूठी पहिचान बनाते दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार के पदों को समझने . के लिए पाठक को प्रयास करना पड़ता हैं। यथा “विनासीक कह छोड़ि अथिर कह जानि विरच्चे। कवन सेज दलमली कवन व्रत धारक सच्चे। सिव सन्मुष कह गयौ ध्यान किहि परसु धरे पिन। कह रहित तन तासु देखि जग कह्यौ कहा जिन। को करत सेवं जब जीति तिनि चार घातिया कर्म ठग। . श्री नेमिनाथ रागादि हनि भोजनादि मन रोधि खग।। जोग. २/१६/१ इस पद में १० प्रश्न हैं, जिनके उत्तर अन्तिम चरण के “भोजनादि मन रोधि खग" में निहित हैं। इस चरण में दस अक्षर हैं। उनमें से नौ अक्षरों के साथ अन्तिम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003998
Book TitleDevidas Vilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavati Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1994
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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