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________________ महामहोपाध्याय डाक्टर गंगानाथ झाने लिखा है “जबसे मैंने शंकराचार्यं द्वारा जैनसिद्धान्तका खण्डन पढ़ा है। तबसे मुझे विश्वास हुआ है कि इस सिद्धान्त में बहुत कुछ है जिसे वेदान्त के आचार्योंने नहीं समझा। और जो कुछ मैं अबतक जैनधर्म को जान सका हूँ उससे मेरा यह दृढ़ विश्वास हुआ है कि यदि वे जैनधर्मको उसके मूल ग्रन्थोंसे देखनेका कष्ट उठाते तो उन्हें जैनधर्मका विरोध करनेकी कोई बात नहीं मिलती ।" अनेकान्त और स्याद्वाद : ३१ हिन्दूविश्वविद्यालय काशीके दर्शनशास्त्र ( philosophy ) के भूतपूर्व प्रधानाध्यापक श्री फणिभूषण अधिकारीने स्पष्ट शब्दों में लिखा है “जैनधर्मके स्याद्वाद सिद्धान्तको जितना गलत समझा गया है उतना किसी अन्य सिद्धान्तको नहीं । यहाँ तक कि शंकराचार्य भी इस दोष से मुक्त नहीं हैं । उन्होंने भी इस सिद्धान्त के प्रति अन्याय किया है । यह बात अल्पज्ञ पुरुषोंके लिए क्षम्य हो सकती थी । किन्तु यदि मुझे कहनेका अधिकार है तो मैं भारत के इस महान् विद्वान् के लिए तो अक्षम्य ही कहूँगा ! यद्यपि मैं इस महर्षिको अतीव आदरकी दृष्टिसे देखता हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्मके दर्शन - शास्त्र के मूल ग्रन्थों के अध्ययन करनेकी परवाह नहीं की ।" पं० राममिश्रजी शास्त्री " स्याद्वाद जैनधर्मका एक अभेद्य किला है जिसके अन्दर प्रवादियोंके मायामय गोले प्रवेश नहीं कर सकते ।” - Jain Education International जैकोबी ( एक जर्मन विद्वान ) - " जैनधर्मके सिद्धान्त प्राचीन भारतीय तत्वज्ञान और धार्मिक For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003996
Book TitleAnekant aur Syadwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1971
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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