SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ : अनेकान्त और स्याद्वाद है। स्याद्वाद वैज्ञानिक और युक्तियुक्त-( Scientifio and rational ) है । जैनदर्शनमेंसे स्याद्वादको निकाल दीजिए तो उस दर्शनमें कुछ भी जान नहीं रह जायगी। भगवान् महावीरने इसी स्याद्वादका उपदेश दिया था । आचार्योंने स्याद्वादके मूल्यको समझा है और उसे केवलज्ञानके समान बतलाया है स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च वस्त्वन्यतमं भवेत् ॥ आप्तमीमांसा १०५ केवलज्ञान भी सर्वतत्त्व प्रकाशक है और स्याद्वाद-श्रुतज्ञान भी सर्वतत्त्वप्रकाशक है। उनमें भेद केवल इतना है कि केवलज्ञान साक्षात्रूपसे सब तत्त्वोंको जानता है और स्याद्वाद परोक्षरूपसे सब तत्त्वोंको जानता है। स्याद्वाद अनेकान्तात्मक अर्थका प्रतिपादन करनेके कारण पूर्णदर्शी है । अनेकान्त और पूर्णतामें अविनाभाव सम्बन्ध है। अतः जिसप्रकार केवलज्ञान पूर्ण है उसी प्रकार स्याद्वाद भी पूर्ण है और इस स्याद्वादसे वचनशुद्धि होती है। सप्तभंगी स्याद्वाद अनन्त धर्मोमेंसे एक समयमें एक धर्मका प्रतिपादन करता है। प्रत्येक धर्मका प्रतिपादन उसके प्रतिपक्षी विरोधी धर्मकी अपेक्षासे सात प्रकारसे किया जाता है। इसी सात प्रकारसे प्रत्येक धर्मके प्रतिपादन करनेकी शैलीका नाम सप्तभंगी है। वस्तुमें अनन्त धर्मयुगल हैं, इसलिए अनन्त धर्मयुगलोंकी अपेक्षासे अनन्त सप्तभंगियाँ बनती हैं । सप्तभंगीका लक्षण इसप्रकार है प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी। --तत्त्वार्थवार्तिक १-६५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003996
Book TitleAnekant aur Syadwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1971
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy