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अनेकान्त और स्याद्वाद : २७ एक वस्तुमें अविरोधपूर्वक विधि और प्रतिषेधकी कल्पना करना सप्तभंगी है।
अस्तित्व एक धर्म है और नास्तित्व उसका प्रतिपक्षी धर्म है । अपने प्रतिपक्षी सापेक्ष अस्तित्व धर्मकी अपेक्षासे सप्तभंगी इसप्रकार बनेगी। १ स्यादस्ति घटः | घट कथंचित् है। २ स्यान्नास्ति घटः घट कथंचित् नहीं है। ३ स्यादस्ति नास्ति घट: घट कथंचित् है और नहीं है। ४ स्यादवक्तव्यो घट: घट कथंचित् अवक्तव्य है। ५ स्यादस्ति अवक्तव्यश्च घटः | घट कथंचित् है और अव
क्तव्य है। ६ स्यान्नास्ति अवक्तव्यश्च घट कथंचित् नहीं है और अवघटः
क्तव्य है। स्यादस्ति नास्ति अवक्त- | घट कथंचित् है, नहीं है, और व्यश्च घटः
। अवक्तव्य है। घट अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे है, परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे नहीं है । यह कथन पृथक्-पृथक्रूपसे है । और एक कथनके बाद दूसरे कथनमें कुछ कालके अन्तरालकी अपेक्षा भी है। घटमें अस्तित्वके कथनके बाद ही यदि नास्तित्वका कथन किया जाय तो घट उभयरूप ( अस्ति और नास्ति रूप ) होगा। यदि अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्मोको एक समयमें ही कहनेका कोई साहस करे तो उसका ऐसा करना दुःसाहस ही होगा, क्योंकि शब्द एक समयमें एक ही धर्मका कथन कर सकते हैं। ऐसी स्थितिमें घटको अवक्तव्य कहनेके सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं रहता। यहाँ यद्यपि घटको अवक्तव्य कहा गया है पर वह सर्वथा अवक्तव्य नहीं है किन्तु कथंचित्
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