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अनेकान्त और स्याद्वाद : २५ एकान्त दृष्टि है । जैनदर्शनका स्याद्वादसिद्धान्त भिन्न-भिन्न मतभेदों ( Diverse opinions ) को दूर करने में सर्वथा समर्थ है। विभिन्न मतावलम्बी एकान्तवादके कारण अपनेको सच्चा और दूसरोंको झूठा मान रहे हैं। लेकिन यदि विविध दृष्टिकोणोंसे भिन्न-भिन्न धर्मोंके सिद्धान्तोंको देखनेकी उदारता दिखलायी जाय तो किसी-न-किसी अपेक्षासे सब ठोक निकलेंगे। सब धर्मों के सिद्धान्तोंका समन्वय · करनेके लिए स्याद्वादसिद्धान्त अत्यन्त उपयोगी है। इसप्रकार स्याद्वाद हमारे सामने समन्वयका मार्ग उपस्थित करता है।
' स्याद्वादका सिद्धान्त सुव्यवस्थित, परिमार्जित एवं आवश्यक है। यह न अनिश्चितवाद है और न संदिग्धवाद। पहले बतलाया जा चुका है कि स्याद्वाद किसी निश्चित अपेक्षासे एक निश्चित धर्मका प्रतिपादन करता है। उसमें सन्देहके लिए तो रंचमात्र भी अवकाश नहीं है। अनेक धर्मात्मक वस्तुकी ठोक-ठीक व्यवस्था करनेके कारण स्याद्वाद सुव्यवस्थित है। सुव्यवस्थित होनेके साथसाथ वह व्यावहारिक ( Practical ) भी है। स्याद्वाद नित्य व्यवहारकी वस्तु है। इसके बिना लोक-व्यवहार चल नहीं चल सकता। जितना भी व्यवहार होता है वह सब आपेक्षिक होता है और आपेक्षिक व्यवहारके कथनका नाम ही स्याद्वाद है। अनेक विरोधी तत्त्वोंका समन्वय किए बिना लौकिक जीवनयात्रा भी नहीं बन सकती। विरोधी धर्मोंके समन्वयके अभावमें अर्थात् एकान्तके सद्भावमें सदा संघर्ष और विवाद होते रहेंगे और विवादका अन्त तभी होगा जब स्याद्वादसे तत्त्वोंका यथार्थ निरूपण होने पर सब अपने-अपने दृष्टिकोणोंके साथ अन्य दृष्टिकोणोंका भी समन्वय करेंगे।
स्याद्वाद जैनदर्शन एवं जैन तत्त्वज्ञानकी नींव (Fouudation)
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