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________________ १४ : अनेकान्त और स्याद्वाद की अकारक अवस्थाको छोड़कर कारकरूपसे परिणमन नहीं करेगा वह किसोका कारक कैसे हो सकता है। नित्यत्वैकान्तवादियोंके यहाँ कारकके अभावमें किसी भी कार्यकी उत्पत्ति संभव नहीं है । जो जैसा है वह सदा वैसा ही रहेगा । जो संसारी है वह सदा संसारी ही रहेगा, मुक्तिको भी प्राप्त नहीं कर सकेगा। इसप्रकार नित्यत्वेकान्तवादियोंके यहाँ विकारके अभावमें पुण्य, पाप, परलोक, बन्ध, मोक्ष आदि कुछ भी नहीं बन सकता है। ___ यही बात क्षणिकैकान्तवादियोंके विषयमें भी है। जो लोग कहते हैं कि पदार्थ सर्वथा क्षणिक है और एक क्षणका अथवा एक पर्यायका दूसरी पर्यायसे कोई सम्बन्ध नहीं है उनके यहाँ भी किसी कार्यकी उत्पत्ति संभव नहीं है। जब एक पर्याय उत्पन्न होते ही नष्ट हो जाती है और दूसरी पर्यायके साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है तो किसी कार्यकी उत्पत्तिकी कल्पना कैसे की जा सकती है । इस मतके अनुसार हिंसा कोई दूसरा ही करता है और उसका फल किसी दूसरेको मिलता है। क्योंकि हिंसा करनेवाला तो उसी समय नष्ट हो जाता है और उससे आगे उत्पन्न होनेवाले विचारे निर्दोष क्षणको उसका फल भोगना पड़ता है। बन्ध कोई दूसरा करता है और उसका फल किसी दूसरेको मिलता है । अर्थात् सर्वत्र कृतनाश और अकृत अभ्यागमका प्रसंग आता है।। ____ इसप्रकार पदार्थको सर्वथा नित्य तथा सर्वथा अनित्य माननेमें अनेक दूषण आनेके कारण पदार्थ न सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य, किन्तु कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है, अर्थात् अनेकान्तात्मक है। यद्यपि नित्यत्व और अनित्यत्व दो विरोधी धर्म हैं लेकिन वे वस्तुमें बिना विरोधके रहते हैं। द्रव्यकी अपेक्षासे पदार्थ नित्य है। जो द्रव्य जितना है वह सदा उतना ही रहेगा, उसका त्रिकालमें भी न एक अंश कम हो सकता है और न एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003996
Book TitleAnekant aur Syadwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1971
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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