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८६०] अध्याय तेरहवां । मां केटलो तफावत छे. यात्रीओने आराम पहोंचाडा केटली तनवीजो करवामां आवे छे ? पैसानो केवी रीते उपयोग करवामां आवे छे तथा ते तीर्थोना हिमाव जे आन लगी अन्धारामा रहेला ते प्रगट करी तीर्थनी हालतथी समाजने केवी वाकेफ करी छे ?
लांबा टीलां टपकां करीने हाथमां माळा झालबाथीज भगतनी व्याख्यानी समाप्ति थती नथी, तेम हाथमां माळाने पेटमां लाळा, समाजने अवनत दशाये पहोंचती जोईने जेने जरा पण दया आवती नी एवा माणसो खरा भगत नहीं मण बगभगतोज छे. खरो भक्त तो तेना कृत्य परथीन जगई आवे छे. पुण्य शु चीन छे तथा शु कार्य करे पूण्यत्री प्राप्ति थाय छे, ते शेठजीना तीर्थ सम्बन्धीना कार्यथीज जणाई आवे छे; हजारो माणस तरफथी भली बुरी सुणीने पण काम कीनो कंईपण बदलो मेळावानी आशा विना निस्वार्थपणे पोताना कर्तगमां मरता सुधी दत्तचित्त म्हेनार पुरुषने महात्मा नहीं तो बीजो शु कहेगय ? धन्य छे तेवा पुरुषने अने धन्य छे तेनी जननीने के जेणे आवा महात्माने पोतानी कुग्वे अवतार आप्यो. कां छे के
" जननी जणजो भक्त जन, कां दाता कां शुर; नहीं तो रहेजे वांझणी, न गमावीश फोकट नूर'
महाशयो, आ एक महात्मानु मण सांभळीने एवो कोण कठिन हृदयनो पुरुष हशे के जेनुं हृदय पीगळ्या विना रहेशे । निद्रामां पडेली तथा कर्त्तव्यन भान मूलेली समाजने जगाडवी ए वीर पुरुष सिवाय बीजो कोण करी शके ? तीर्थ प्रत्येनी खरी भक्ति ने समाजना दुःखे दुःखी ते एक भक्त नहीं तो बीजो शुं कहेवाय ?
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