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________________ दानवीरका स्वगवास । [ ७९५ आज लाखों जैनी अपने अपने भाई के खोजानेके समान दुखी हैं । तौ भी संसारकी स्थितिको देखकर हृदय संतोषित करना पड़ता है । हम आपके दुःख से सहानुभूति प्रकट करते हैं और निवेदन करते हैं कि आपको भी संसार के स्वरूपका ध्यान मनमें संतोष रखनेके साथ स्वर्गीय सेठजीके पदानुसारी होनेका प्रयत्न करना चाहिये । शोकाकुलसूरजमल जैन, हरदा । महोदयजी ! आजदिन इस शोक समाचारको प्रकट करते लेखनी धर्म रही है । विवश लिखना पड़ता है कि ऐसा विषय कभी न लिखना पड़े । श्रीयुक्त माणिकचन्द हीराचन्द जे. पी. के मृत्युपर बड़ा ही दुःखदायी आघात पहुंचा है। आपके योगसे वैद्य शास्त्रीय हर एक प्रकारकी समुन्नतिकी आशा ही थी इतना ही नहीं आपने हीराबाग में धर्मार्थ औषधालय अपना अमर नामरक्षक नियत कर दिया है । ऐसे रनरत्नके न रहनेसे आजआयुर्वेद के शुभचिन्तक सभी सुजनोंकी बड़ी भारी हानि हुई है । आपकी आत्माको स्वर्गवास हो । मुझे श्रा. सुदी ४ के कमेटीमें इस समाचार पर " निखिल भारतवर्षीय वैद्यसम्मेलन " की स्थायी समितिने आपलोगोंसे (सेठजीकी बाई और पुत्र आदि कुटुम्बी) समवेदना प्रकट करनेकी आज्ञा दी है। तदनुसार मैं इस महा घोर दुःखप्रद समाचारको । लिये सम दुःखी होते हुए आपलोगोंको वज्र हृदय कर धैय धार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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