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________________ दानवीरका स्वर्गवास। [७९३ प्रकार यह जैन सभा काल का शोकातुर होती हु । अंतमें श्रीमान् सेठनीके कुटंबी जनोंसे प्रार्थना करती है कि इस रिके स्वभावको विचार करके संतोषावलंबन करें । दोहेकाल बड़ा विकराल है सोच नाही नेक । अज्ञानी निर्दयी कुटिल राखे अपनी टेक ॥ १ ॥ अंर ! दुष्ट पापात्मा करुणा हीन कटोर। जैन जातिके रलको हा हा ! कीन विछोर ॥ २ ॥ हा ! हा ! दिनेश छिप गयो भयो घोर अँधिया । हीरा कीसी ज्योति थी सो कित गई धार ॥ ३ ॥ हा ! हा! माणिक जगति सम हा ! उड़गनमें च ।। हमें छोड़ तुम कित गए हे ! प्रफुलि अंग ॥ ४ ॥ ज्ञानी धनी मुशील वर नीन सो पर उपकार । तुम विन इाइम सबनको कोन कर . द्वार ॥ ५॥ सागरवत गंभीर हृदय कल्पवृक्ष मुख देन।। तुम विन इवत तातिकी को शुध ले कि रन ॥ ६ ॥ जैनोनतिकी आशको ले गयो मास अपाद ।। कृष्णा नवमीके दिना जाति भई अनाथ ॥ ७ ॥ हाय देव ! यह क्या कियो सुनत ही भये अधीर। हृदय शोक बाढ़ो अवे वहता नयनों नीर ॥ ८ ॥ चाहत हूँ उन दर्शको पर नहिं पार वसात । देख कालकी चालको काँपत है निज गात ॥ ९ ॥ काहे हृदय अधीर हो वस्तु स्वरूप विचार ।। मनमें अब धीरज धगें यह संसार असार ॥१०॥ श्री अरहंतसे वीनती करूं जौर युगपान । श्रीमन्जीकी आत्मा वसे शांत मुखधाम ॥११॥ होय कुटंबी जननके हृदयशांतको वास। जैनजाति जिनधर्मसे नितप्रति प्रेम व्यवहार ॥१२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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