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________________ ७६० ] अध्याय तेरहवां | के वियोगसे परम निराधारता प्रकट हुई । रात्रिभर सर्वने उदासी में विताई, सवेरा होते ही यह खबर विजलीकी झड़पके समान बम्बई में फैल गई, जिसने सुना वही रोता, उदास होता हुआ चौपाटी बंगलेपर आ पहुंचा । बात की बात में सैकड़ों जैन और अजैन जमा हो गए । दानवीर सेठ हुकमचन्दजी भी बम्बई में थे। यह भी तुर्त आए । सेठ सुखानन्दजी भी आए । प्रसिद्ध २ मारवाड़ी व गुजराती कोई भी जैनी ऐसा न था जो इस समय न आया हो । पुण्यात्मा नरके प्रेतको एक बड़ी भारी भीड़के साथ स्मशान में ले गए और चन्द्रदि सुगन्ध वस्तु तथा उत्तम का प्रेरको विराजित कर असंस्कार किया गया । उस समय सर्व भाइयोंने " सेठ माणिकचन्दजीकी जय " ऐसे शब्द किये थे | हरएक सेठजी के साधारण व मिलनसार मिज़ाजको विचार २ कर व इनके कृत्योंको याद करके इनके ऐसे पुरुष जैनियोंमें जब नहीं हैं, यह एक अपूर्व पुरुष थे, अब इनके स्थानको कोई पूर्ति करनेवाला नहीं है, यही परस्पर चर्चा होती थी । वास्तव में सेठजीका जीवन एक श्रद्धावान, कर्मवीर, निरालसी, सत्यवादी, स्वावलम्बनधारी जैन गृहस्थीका जीवन था । जिसने अपने तन मनके उपयोगसे अपनी आर्थिक स्थितिको एक साधारण मज़दूरसे लक्षोंके स्वामित्वमें पहुंचा दिया था । बम्बई में चारों ओर वीसों बंगले और मकान आलीशान सेटजीके हाथसे बनवाए हुए शोभाको दे रहे हैं। आर्थिक उन्नति करने में सेठनीने अन्याय और असत्यको अपना हथियार नहीं बनाया था । किन्तु सत्य और न्यायसे द्रव्य उपार्जन किया था । यह इसीकी महिमा थी जो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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