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अध्याय बारहवां । तुम धन्य है सु-प्रयत्न, हो जैन-महिला-रत्न ॥ १ ॥ तुम्हारो सबै स्वच्छन्द, स्वागत करें सानन्द । तुम किये बहु शुभ कृत्य, चुकीं तुम कृतकृत्य ॥ २ ॥ महिला रहीं जो अज्ञ, तुम्हारी भई सु कृतज्ञ । "शिक्षा'' प्रचार प्रशस्त, तुम कियो घूमि समस्त ॥ ३ ॥ दै "धर्म"को उपदेश, · पूरण कियो उद्देश । मृदु मधुर बानी बोलि, शुभ "श्राविकाश्रम" खोलि ||४|| "छात्रालयन'' खुलवाय, "विधवाश्रमन" बनवाय । करि सके नरन प्रवीन, वह काम तुम करि दीन ॥ ५ ।। सत् दानवीर अमंद, श्रीसेठ माणिकचंद । जे. पी., कुलालङ्कार, जिन लह्यो शुभ सत्कार ॥ ६ ॥ तिन योग्य तुम सन्तान, कहि सब करें सामान । बढि पुत्र सों तुम काज, कीन्यों सुता कै आज ॥ ७ ॥ "जैनी-महिला-परिषद् का संस्थापन करने वाली ! करें कहाँ तक, देवि, प्रशंसा, तुम हो नारि निराली ! ॥ ८ भारत-जैन-महामण्डल यह, आदर सों आराधि । "जैनी-महिलारत्न' नाम की, अर्पण करै उपाधि ॥९॥ आशा है, निज जनन को, यह सादर उपहार । उत्सवके आनन्द महँ,' है है अङ्गीकार ॥ १० ॥
कुमार देवेन्द्रप्रसाद जैन-काशी। वीर सं० २४४० में मार्गशीर्ष सुदी ३ के दिन श्रीमती
मगनबाईजीने अपनी एक मात्र कन्या केशर मगनबाईजीकी पुत्रीका मती की लग्न सूरतमें जाकर पूना निवासी विवाह । जेचंद मानचंदके पुत्र चंदूलालके साथ बड़े
समारोहके साथ जैन पद्धतिके अनुसार की।
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