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________________ [ ६९७ महती जातिसेवा तृतीय भाग । सेठ हरजीवन रायचंद को लिखा करते थे । आमोद आपने एक दफे लिखा " हवे मारूं शरीर सारूं रहेतुं नथी अने मारी शारीरिक शक्ति घटती जाय छे, तेथी जे खातांओ अने हिलचालो हाल चाले छे तेनो भार हवे तमारा जवाए उपाड़वानी इत्यादि. जरुर छे "" पाठक देखेंगे कि सेटजीको भविष्य के सुप्रबन्धकी कितनी भारी चिन्ता थी । T लेटे लेटे भी आप कभी सुस्त नहीं रहते थे, पुस्तकें पढ़ा करते थे । इन दिनों आपके हाथमें भारत और विलायत के प्रवासकी पुस्तकें गुजराती भाषामें पढ़ने में आई जिससे कभी २ मनमें तरंग उठती थी कि जो स्थान हमने नहीं देखा है उसे अवश्य देखलेना चाहिये | आपने ब्रह्मदेश ही नहीं देखा था । रंगूनसे यद्यपि आपका पत्र व्यवहार था तथा अपने आढतियेको आप प्रेरणा करते थे कि बौद्ध लोगोंसे मांसका आहार छुड़ानेका यत्न करें। पुस्तकें भी बटवाते थे तथा वहां एक फलाहारी होटल खुलवाना चाहते थे कि जिससे मांसाहारियोंको भोज्य पदार्थ खिलाकर उनकी रुचि स्वादिष्ट और उत्तम मांसवर्जित भोजन पर आकर्षित की जावे । इसके लिये आप लिखापढ़ी कर रहे थे । अब आपने अपना पक्का विचार जानेका कर लिया था और कलकत्ते की कमेटी करके आप ता० ३० ब्रह्मदेशकी यात्रा । दिसम्बर को रंगून खाना हो गए और वहां सैर करके कलकत्ते ता; १५ जनवरीको For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International *
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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