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६७८] अध्याय बारहवाँ। वादमें यह आश्रम आसौज सुदी ११ ता० २५ अक्टूवर १९०९ को स्थापित हुआ था। १॥ वर्ष तक वहां अपना काम निर्विघ्न चलाकर यह बम्बई आया। अब यह बम्बई में बहुत उन्नति पर है । श्राविकाओंको धर्मका ज्ञान देनेमें शुरूसे अब तक श्रीमती ललिताबाई परिश्रमशील हैं। आश्रमकी ओरसे कई श्राविकाएं पूना कर्वेके विधवाश्रममें उच्च शिक्षा ले रही हैं। एक बाई अहमदावाद ट्रेनिंग कॉलिजमें शिक्षिकाका कम सीख रही हैं। सेठ माणिकचंदजी दूसरे
तीसरे दिन आश्रममें जाकर घंटा दो घंटा सेठजीकी श्राविकाश्रम सर्व देखते थे व मगनबाईजीको सुप्रबन्धार्थ पर महती कृपा। सम्मति देते व लेते थे। कुछ दिनोंमें आपने
७०) मासिक करीबके कई कभरे और खाली कराके आश्रमके सुपुर्द किये जिसमें छात्राएं खूब अच्छी हवादार जगहमें रहें तथा वहीं एक कोठरीमें चैत्यालय भी कर दिया कि नित्य धार्मिक क्रियाको दूर न जाना पड़े। कोई २ बाईएं नलका पानी नहीं पीती थीं उनके लिये एक कुआं भी खुदवा दिया व बंगलेके आगे व बगलमें खूब वृक्षोंकी बहार व पानीका फंवारा चलने लगा जिससे श्राविकाओंको वृक्ष स्पर्शित सुन्दर स्वास्थ्ययुक्त पवनका लाम हो । इस समय आश्रम इसी स्थानपर है। खेद है सेठजी यकायक मृत्युवश हुए नहीं तो वे इसको भी चिरस्थाई कर जाते जैसे उनकी आदत थी कि जो काम अपने हाथसे खोलना उसे सदाके लिये पक्का कर देना, जिसमें दीर्घकाल रहकर वह काम अपना लाम बता सके ।
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