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________________ vum __ महती जातिसेवा द्वितीय भाग। [५८३ आदि धर्मके काम सहनमें हो जावें । ऐसा करनेमें सत्यता व नेक नियतीकी जरूरत है। बड़े २ व्यापारी बहुत धर्मादा काढते हैं वे ही देनेसे हिचकते हैं इसीसे योग्य उपयोग नहीं होता। धर्मादा द्रव्य हमारा नहीं हैं यह भाव यदि हो तो बड़ा उपकार हो सक्ता है । दूमरे दिन जैन बोर्डिङ्गके छात्रोंने सेठजीका बहुत सन्मान किया। सेठजी फौरन बम्बई आए । बड़े ही आनन्द व आश्चर्यकी बात है कि सेठनीको यात्रा करने व देश परदेश जान में शरीर कष्ट व खर्चका कुछ भी खयाल नहीं होता था। वास्तवमें जो ऐसे ही निरालसी दातार होते हैं वे ही कुछ कर जाते हैं। जैसे गृहारंभादिके कामों में नाना चिन्ताएं रहती हैं इसी तरह व्यवहार धर्मके साधनमें भी बहुतसी श्री अंतरीक्षजीमै चिन्ताएं हो जाती हैं। अब सेठंनीको धम मारामारी और सम्बन्धी ही चिन्ताएं रहा करती थीं। सेठजीको भारी श्री शिखरजीकी चिन्तासे कुछ मुक्त हुए थे चिता । कि यकायक अंतरीक्ष पाश्वनाथके . झगड़ेसे भारी चिंता हो उठी । बरार प्रान्तमें अकोला स्टेशनसे ४० मील सीरपुर गांव है वहां श्री अंतरीक्ष पार्श्वनाथजीकी भव्य दिगम्बर जैन मूर्तिसे शोभायमान एक जिन मंदिर है । यह अतिशयकारी प्रतिमा है। व्यापारार्थ आनेवाले श्वेताम्बरी भी दर्शन करने जाने आने लगे थे । बम्बईसे एक संघ यात्राके लिये पन्यास मुनि आनंदसागरजीके साथ वहां गया था। उसने श्वेताम्बरी २ प्रतिमा व १ यंत्र वहां सदाके लिये विराजमान करनेका उद्यम किया तब Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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