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अध्याय ग्यारहवां । सेठ माणिकचंदजीके हार्दिक दुःखका अनुभव करना कठिन है । बम्बई आकर ताः ९ अप्रैल ०८ को हीराबाग में एक सभा बुलाई | सेठ हरमुखराय अमोलकचंदजीके मुनीम लाला मिश्रीलालजी सभापति हुए । सर्व जैनियोंने सर्कारी आज्ञाका विरोध करके वादानुवादके वाद यही निश्चय किया कि अब केवल दो ही उपाय शेष हैं - एक मुकद्दमा चलाना दूसरा अपने प्राणों का विसर्जन करके पर्वतकी रक्षा करना । सभा में दो प्रस्ताव पास हुए - एक शोक प्रकाश करने और दूसरा गवर्नमेन्टकी आज्ञा अस्वीकार करनेके विषय में। दोनोंकी नकल भारत सर्कारको भेज दी गई ।
ता. ५ अप्रैल को निम्बगांव ( पूना ) में दिगम्बर जैन प्रान्तिक सभाका नैमित्तिक अधिवेशन सेठ सखाराम शिखरजीपर बंगले नेमचंद, शोलापुर के सभापतित्वमें हुआ । उसमें वननेका विरोध | शिखरजी पर बंगले बनने का विरोध व स्वदेशी ग्रहण और विदेशी बहिष्कारका प्रस्ताव पास हुआ। सेठ माणिकचंदजीने कमेटी द्वारा इस सर्कारी धर्मघातक आज्ञाकी खबर सर्व पंचायतियोंको कर दी। तब जगह२ सभाएं होकर विरोध किया गया । ता. ३० अप्रैलको बम्बई प्रान्तिक कॉनफरेन्सका जलसा धूलिया में राव बहादुर जोशी के सभापतित्वमें हुआ उसमें येवला के दामोदर बापूने सन् १८५८ की घोषणापत्र के विरुद्ध जैनियोंके धर्मघातको होते देख इस सर्कारी आज्ञाका विरोध किया । इसका समर्थन सेठ वालचंद हीराचंद, मालेगांव, मुंशी गुलाम मुहम्मद (नगर), लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने किया। ता. २९ अप्रैलको बम्बईके
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