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महती जातिसेवा द्वितीय भाग | [५६३ और भी सेठजीको चिन्ता होती थी कि क्या होनेवाला है। कई तो यही कहते थे कि यदि बंगले बनने लगे तो हम पहाड़पर पड़ जायगे, मार खांयगे, मरेगे, पर परम पूज्य शानकी भूमिको गृह स्थियोंका प्रपंचघर व पशु हिंसा, मदिरापान, विषयभोग, विलासका स्थान कभी न बनने देंगे। इस समय भारतमें स्वदेशी आन्दोलनकी बड़ी धूम थी। जैनियोंको भी व्याख्यानों व अखबारोंसे यह सब चर्चा मालूम होती थी। उधर जैसे बंगाल बंगभंगके कारण विक्षिप्त चित्त था और विदेशी माल न व्यवहार कर सादेशी कारखाने, विद्यालय खोलनेमें अनुरक्त था ऐसे ही जैनसमाजका चित्त हो गया था। जैन अखबारोंके सिवाय अन्य पत्र भी सर्कारकी इस आज्ञाको बहुत ही अनुचित और नियों के पवित्र धर्म व श्रद्धाके बाधक मानकर सम्पादकीय लेख लिखने लगे। जैनसमान में सदेशी वस्तु ग्रहण व शिखरजीपर प्राग न्यौछावर करनेके प्रस्ताव होने लगे। सर्व देशीय सभाओंने भी अनियोंके इस दुःख में सहानुभूति दर्शाई । विहार प्रान्तिक कानफरेन्स वांकीपुरमें यह प्रस्ताव पास किया "सम्मेदशिखर पर बंगले बनानेकी आशासे जैन प्रना क्षुब्ध हो उठो है। सरकारको चाहिये कि इस अनुचित कृत्यसे अपना हाथ खींच ले " ।।
मुगलहाट जिलारंगपुरके भाइयोंने इस शिखरजीके उपसगको सुनकर विलायती नमक बेचना बंद कर दिया, जो वर्ष में रु. २०००) का खपता था ।
परम पवित्र तीर्थरानकी रक्षाकी चिन्तामें भग्न भारतवर्षों तीर्थक्षेत्र कमेटी के अधिकारी और तीर्थोकी रक्षाके जिम्मेदार
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