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________________ महती जाति सेवा द्वितीय भाग। [५३१ 'फंसा हूं। मैं पत्रकी सम्पादकी कैसे कर सकूँगा ? तब सेठनीने समझाया कि तुम साहस करो तथा हरजीवन रायचंदनी सहायता करेंगे । छोटेलाल अंकलेश्वरने भी लेखादिसे मदद देनेका वादा किया फिर भी मूलचंदजीने इनकार किया तब शीतलप्रसादनीने कहा कि साहस करो मासिकपत्र चलाना कोई बात नहीं है हमने तो साप्ताहिक पत्रको लौकिक बहुतसा काम करते हुए भी चलाया है। चारचार कहनेसे मूलचंदजीको अंतरंग ज्ञान शक्तिने गवाही दी कि तू कर सकेगा। मूलचंदनीने उस समय बेमनसे इस बातको स्वीकार कर कहा कि मैं सूरत जाकर इसके लिये यथाशक्ति प्रयास करूंगा। शीतलप्रसादजीने पीठ ठोकी । आज उसी मूलचंदजीने इस दिगम्बर जैन पत्रको इस सभाके पीछे ही कार्तिक मार्गशीर्षका मम्मिलित अंक निकालकर व बराबर उन्नत रूप व एक समान समय पर प्रगट करते रहकर इस सीमाको पहुंचा दिया है कि दिगम्बर जैन समाजके सर्व पत्रोंके ग्राहकोंसे अधिक ग्राहक इस पत्रके हैं अर्थात् अनुमान २००० हैं और इसे साधारण सर्व ही देशके जैनी भी रुचिसे लेते हैं। हिन्दी भाषी देशमें भी इसका अच्छा प्रचार है। प्रति वर्ष खास अंक अनेक विद्वानोंके उत्तमोत्तम लेख व अनेक चित्र सहित १५० व २०० सफोंका निकालकर अच्छा सन्मान प्राप्त किया है । जैनियोंके और पत्र हरवर्ष जब घाटा सहन करते हैं तब यह पत्र ही नफा करके उसे धर्मद्रव्य समझ उसे पत्रकी विशेष उन्नति व उपहारकी पुस्तकों के देनेमें लगाता है। इस बोर्डिंगमें चैत्यालय शुरूसे ही था । यह सेठजीका कायदा रहा है कि नितने छात्र बोडिंगमें रहें वे दर्शन अवश्य करें। यदि मंदिरजी निकट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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