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अध्याय ग्यारहवां । नहीं है तो चैत्यालय अवश्य होना चाहिये। इसी भावसे बम्बई वोर्डिंग व कोल्हापुर बोर्डिंगमें चैत्यालय था वैसा ही यहां हुआ था। इसकी शोभा माता रूपाबाईके द्वारा दिनपर दिन बढ़ती थी। इस वर्ष माताने चांदीका छत्र, कटोरी व जर्मन सिलबरका कलस भेट किया था। सेठजी यहांसे लल्लूभाई लक्ष्मीचन्द और शीतलप्रसादजी
को लेकर श्री तारंगाजी सिद्धक्षेत्र रवादि० श्वे० की फूट ना हुए । साथमें बम्बईके श्वे० भाई रायचन्द मेटनको तारंगाजी लल्लुभाई भी थे। यहां आने का यह कारण की यात्रा। था कि तारंगाजीपर एक कुंड है जिसकी
__मोहरीसे दि० श्वे. दोनों पानी लेते हैं। उस मोहरीको दि० कोठीके आदमी मरम्मत कराना चाहते थे । श्व० के आदमियोंने झगड़ा करके रोका । फरियाद पुलिसतक गई। इसीको परस्पर निबटानेके लिये आना हुआ था । ताः २१ अक्टूबर ०७ को गुजरातके बड़नगर स्टेशनपर आए। वहां श्वे० सेठ फतहचन्द सांकलचन्दनी अनेक भाइयोंके साथ स्टेशनपर मिलने आए थे। उस दिन उन्हींके यहां ठहरे। उन्हींने ही कच्चो रसोई बनवाई थी जिसको २० व दि० भाइयोंने अलग २ बैठकर एक साथ खाई थी। यहांसे ११ मील गाड़ीपर तलहटी आए । वहां कोई आश्रय स्थान नहीं था। पहाड़पर १ मील चढ़नेसे कोठी व धर्मशाला आती है यहां दि० के २ मंदिर हैं। एक बहुत प्राचीन है जिसमें मूलनायक श्री संभवनाथ स्वामीकी बहुत मनोज संवत रहित प्रतिमा है । दूसरा मंदिर भी आदिनाथ स्वामीका
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