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________________ ४९४ ] अध्याय ग्यारहवां । समय होवे तब तक आप गाड़ीपर बैठकर कभी बोर्डिंग, कभी कोई मकान, कभी किसीसे मिलनेके काममें चले जाते थे । वहांसे आकर रसोई जीमकर सर्वके साथ दूकान जाते थे । रास्तेमें हीराबाग धर्मशालामें उतर जाते थे। जबतक गाड़ी औरोंको जौहरी बाजार पहुंचाकर न लैट आती तबतक आप शीतलप्रसादनीके साथ धर्मशाला में घूमकर सर्व जांच करते, दफ्तरमें आकर सुप० धर्मशालासे हाल मालूम करते, रोज़के फार्मको देखते कि जिसमें यात्रियोंकी आमद लिखी जाती है, फिर तीर्थक्षेत्र कमेटीके मैनेजरके पास बैठकर जरूरी पत्र पढ़ क्या जवाब देना सो समझाकर जब गाड़ी आती तब दूकानपर जाते थे। वहांपर तीर्थक्षेत्रोंके सिवाय और अनेक तरहके धार्मिक सामाजिक पत्रोंको पढ़कर उनका उत्तर लिखते व लिखाते थे। अब सेठजीका सम्बन्ध सम्पूर्ण भारतवर्षसे होगया था। महासभाके सम्बन्धमें भी बहु लिखा पढ़ी होती थी। सेठजीके सामने ही सेठ नवलचन्द, चुन्नीलाल, ठाकुरभाई व्यापारका काम करते थे। कोई २ माल खरीदते समय सेठजोसे सलाह लेते थे तथा जो ग्राहकगण फुटकल मोती लेने आते वे सेठजीकी सलाहसे लेते और जो दाम यह कहते उसे विना दुलखे दे देते थे। सेठजी बड़े न्यायशील व परोपकारी थे। वे विना कोई अपेक्षा रक्खे ऐसे दाम कहते कि उससे कम कहीं बाज़ार में उसे न मिल सके जिससे उसका मन भी प्रसन्न रहे और दूकानवालों को भी योग्य लाभ हो । तीर्थक्षेत्र कमेटीके लिखे हुए पत्र दूकानपर आते . उनको शुद्ध करके हस्ताक्षर करके भेन देते थे। कोई २ आवश्यक .. तीथक्षेत्रके पत्र दूकानपर ही लिखते लिखाते थे। अपना उपयोग . सर्व जैन जातिके सुधारे सम्बन्धी भावों में उलझाए रखकर शामके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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