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महती जातिसेवा द्वितीय भाग ।
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ग्यारहवां अध्याय ।
महती जातिसेवा द्वितीय भाग । सेठ माणिकचंदनी कलकत्तेके प्रवाससे लौटकर बम्बईमें अपनी
नित्य क्रियामें लवलीन हो गए । इस अवसेठ माणिकचंदजीकी स्थामें भी जब सेठनी बम्बई रहते तब चौपाटी दिनचर्या । चैत्यालयमें स्वयं श्री जिनेन्द्रकी स्फटिक
मणिकी मूर्तियों का अभिषेक करते थे, णमोकार मंत्रकी जाप दे शास्त्र स्वध्याय करके जो मुद्रित पुस्तकें चैत्यालयमें रक्खीं थीं उनको देखते थे तथा बाहरसे बहुतसे स्थानोंकी मांग आती थी उनके लिये पुस्तकों के छांटनेका काम ठाकुरदास भगवानदासके सुपुर्द था । ठाकुरभाई स्वयं करते व और छोटे लड़कोंसे कराते थे, जो बहुधा चारों भाइयोंके कुटुम्बमें कोई न कोई बंगले में रहते थे । तथापि सेठजी उनकी जांच रखते व कभी आवश्यक होनेपर स्वयं भी पुस्तकोंको छांटकर अलग : बिना बंधा बंडल रख लेते थे और उन्हें फिर दूकान जाते हुए ले जाकर भिजवा देते थे। प्रायः जैन पाठशालाओं और खास २ स्वाध्यायके लिये प्रार्थनारूप मांगनेवालोंको आधे मूल्यमें व भेट रूप भी भिजवाते थे। कई हज़ार रुपया इस काममें अटका रखा था। सेठजीके जीवन तक बाहर भेजनेका जितना काम होता था उतना अब नहीं होता है, तथापि अब भी चौपाटीपर पुस्तकालय है जिसमें सर्व प्रकारकी संस्कृत प्राकृत माषाकी पुस्तकें रहती हैं। मंदिरजीसे निकलकर जब तक रसोईका
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