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अध्याय दशवां। खयालसे सेकन्ड क्लासमें ही यात्रा करते थे और अपने साथवालोंको भी अपने ही डिब्बेमें बिठाते थे। सेठजीका कहना था कि यदि यात्रामें शरीरको कष्ट हुआ तो जिस कामके लिये अपनी यात्रा होती है वह काम अच्छा न होगा । शीतलप्रसादजीको सेठनी सदा ही अपने साथ बड़ी प्रतिष्ठासे बिठाते थे और हर तरह उनके शरीर, प्रकृति, व धर्म साधनकी रक्षा करते थे। अपनी स्त्रीके देहान्त होनेके बाद शीतलप्रसादजी चारित्रमें अपना अभ्यास बढ़ा रहे थे सो जबसे लखनऊ छोड़कर बम्बई रहने लगे थ तवसे बराबर सबेरे और शाम सामायिक करते, अष्टमी व चोंदलको उपवास करते थे, रात्रिको जलपानका त्याग था, दर्शनपाठ या स्वाध्यायके विना भोजन नहीं करते थे। इन सब बातोंकी सम्हाल सेठनी पूरी २ रखते थे । प्रायः अष्टमी चौदस आजानेपर इसी निमित्त ठहर जाते थे। कलकत्ते में पहुंचते ही बाबू धन्नूलाल अटार्नी सभापति स्वागतकारिणीने बहुतसे सभासदोंके साथ सेठजीका बहुत ही सन्मान पूर्वक स्वागत किया और घरकी मनोहर गाड़ियोंपर लेजाकर धर्मशालामें ठहराया। सेठजी जब रेल गाड़ीसे उतरे थे तब देखते क्या हैं कि एक पगड़ी पहने हुए चश्मा लगाए हुए युवकने बहुत ही झुककर सेठनीको प्रणाम किया। सेठजीके चित्तमें इस महाशयकी ऐसी विनयका बहुत ही असर हुआ। यह महाशय वही बाबू धन्नूलालजी थे जिनके चित्तमें सेठजीकी परोपकारता व दानवीरताकी कथा अंकित थी। उसी गुणग्राहकताने एक अटार्नीको इतना नम्रीभूत कर दिया था। महासभाके अध्यक्ष लाला रूपचंदजी सहारनपुर नियत हुए थे । आप ता० २४ दिस
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