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अध्याय दशवां ।
होना ।
सेठ माणिकचंदजीने एक दिन शीतलप्रसादजी से कहा कि तीर्थक्षेत्र कमेटीका मैं महामंत्री हूं तथा वह हीराबाग में तीर्थक्षेत्र कमेटी स्वतंत्रता से काम करनेको महासभा कमेटीका दफ्तर द्वारा स्थापित हुई है पर उसका कोई दफ्तर कायदे से नहीं है । उसका काम शिथिलता के साथ बम्बई प्रान्ति सभाके द्वारा ही चलता है । उसीके द्वारा बीसपंथी कोठी शिखर जीका मुकद्दमा किया गया जिसमें करीब ८००० ) का कर्जा बम्बई प्रान्तिक सभाका है । पं० गोपालदास बरख्या महामंत्री प्रान्तिक सभाके हिसाबको इसी कारण न पास करते हैं न प्रसिद्ध करते हैं । वे कहते हैं कि इस रुपये को चुकाना चाहिये; सो यदि तुम थोड़ा
परिश्रम लो और दफ्तर की सार सम्हाल रक्खो तो दफ्तर हीराबाग में खोला जाय और मैनेजर नियत करके कायदेके साथ सब काम
तीर्थोंके उद्धारका कराया जाय तथा इस रकमका भी जमा खर्च
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होकर बम्बई प्रातिक सभाका हिसाब पास हो तथा हमारी दूकान पर जो तीर्थों के लेनदेनके बहुतसे खाते हैं वे भी सब यहीं बदल
दिये जावें । शीतलप्रसादने सेठजीकी सम्मतिको बहुत ही पसंद की और यथासंभव मदद देनेके लिये कहा, तब सेठ माणिकचंदजीने हीराSarah दफ्तरवाले हॉल में कायदेके साथ ताः १ अगस्त १९०६ को दफ्तर खोलनेका महूर्त किया तथा बाबू बुधमल पाटनी जो संस्कृत और इंग्रेजीके जानकार धर्मात्मा भाई थे मैनेजर नियत किया तथा सर्व सभासदों, तीर्थक्षेत्र के प्रबन्धकर्ताओं व अन्य महाशयोंको
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