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________________ महती जातिसेवा प्रथम भाग । [४६९ सहित जिनेन्द्रका दर्शन पूजन करते हैं न शास्त्रस्वाध्यायमें मन लगाते हैं। लौकिक विद्याकी भी प्राप्ति नहीं करते, जिसमें कोई यंत्र आदि निर्मापण कर व व्यापारको विदेशों में बढ़ाकार लक्षोंका धन एकत्र करें व सर्कारी बड़े २ ओहदे प्राप्त करें जिसमें १०००) व ८००) मासिककी प्राप्ति हो । दान भी हम लोग यथोचित नहीं करते । मेले, प्रतिष्ठाओंमें व अपने पुत्रपुत्रियों के विवाहोंमें लाखों हज़ारों खर्च करना ठीक समझते हैं किन्तु आवश्यकीय आहार व विद्यादानमें नहीं । हमारी जैन जातिमें पुराने विद्वान धीरे २ अन्त होते जाते हैं, परंतु हम नए विद्वानोंके उत्पन्न करनेका दिल लगाकर कुछ प्रयत्न नहीं करते । काशीमें यद्यपि स्याद्वाद पाठशाला नियत हो गई है तथापि विना ध्रौव्य फंडके बालुकी भीतिके । समान है यदि एक मेला करनेकी भांति कोई भाई इस पाठशालाको चिरस्थाई कर दे तो कितनी धर्मकी उन्नति हो। लोग पुनर्विवाह करनेके पक्षको पकड़नेको दौड़ते हैं, पर यह पक्ष नहीं करते कि हम अपनी कन्याओं का विवाह १२ वर्ष से कम उम्र में न करेंगे, न हम लोग अपनी कन्याओंको पढ़ाते हैं। अफसोसकी बात है, क्या हम लोग श्री आदिनाथ भगवानसे भी बढ़ गए ? क्या उनको मालूम नहीं कि श्री आदिनाथनीने अपनी पुत्री ब्राह्मी और सुन्दरीको अपने आप पढ़ाया था । सदविद्या पढ़नेसे कदापि हानि नहीं हो सक्ती।" सेठ माणिकचंदनीने सेठ साहबके व्याख्यानकी बहुत प्रशंसा की तथा निवेदन किया कि यदि हमारे सेठजी चाहे तो आज यह चिरस्थाई हो जावे । सभा सानन्द समाप्त हुई। रात्रिको ही सेठजीने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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