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अध्याय दशवां । अच्छा होता रहता है, केवल जमा ही करते जाना यह नीति अच्छी नहीं है। पाठकोंको यहांपर यह भी विचारना है कि सेठजी ५५ वर्षके करीब थे। एक पैर जमीनपर जमता न था, लकड़ीके सहारे चलते थे तौभी आलस्य बिलकुल न था । तीव्र गर्मीके दिनोंमें भी आप धर्मकार्यके प्रबन्धके लिये बम्बईसे इतनी दूर आए थे। बम्बई लौटकर चौपाटीके दीवानखानेमें एक रोज़ सेठजी,
श्रीमती मगनबाई और शीतलप्रसादजी बैठे सूरतमें मानपत्र और हुए थे । स्त्रीशिक्षाकी वात चली तब यह ५०००)का दान । प्रश्न उठा कि सुरत नगरमें कोई जैन
कन्याओंके लिये पढ़नेका साधन रूप कन्याशाला नहीं है सो यह बड़े अचंभेकी बात है। तब सेठजीने कहा कि वहांकी मंडलीका शिक्षाकी तरफ बहुत कम ध्यान है, तौभी मैं प्रयत्न करूंगा कि वहां कन्याशाला होवे और यह मैं अपनी स्वर्ग प्राप्त पुत्री फुलकुंवरके नामसे खुलवाऊंगा। कई दिन पीछे ही आप शीतलप्रसादजीको लेकर सूरत पधारे । जे. पी. का पद मिलनेके पीछे आप पहेल पहल ही सूरत पधारे थे इसलिये यहांके दिगम्बरियों ने परस्पर सम्मति करके निश्चय किया कि अपने नगरके वतनीको जो प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है उसका हमें मान करके एक मानपत्र अर्पण करना चाहिये।
ता० २९ मई १९०६ की रात्रिको नवापुराकी फूलवाड़ीमें सभा भरी। उस समय सेठ मूलचंद किसनदासजी कापड़िया आदि कई वक्ताओंके व्याख्यान हुए । शीतलप्रसादजीने बालक व बालि
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