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________________ ४२६ ] अध्याय दशवाँ व्यापारादिमें जो धर्मादाका पैसा लिया जाता है उसको धर्ममार्गमें लगाया जाय तथा उसमेंसे ।) द० म० जैन सभाको व ॥) पांजरापोल व अन्य उपयोगी कामों में लगाया जावे। आपने एक अच्छा असरकारक भाषण मराठी भाषामें दिया, जिसमें कहा कि"परिणामोंकी विचित्र गति है जिस समय दान करना चाहे उसी समय दानके पैसेको अलग कर देना चाहिये । सभामें चंदा लिखकर देने में ढील नहीं करनी चाहिये। भाइयों ! हमको सभामें विश्वास रखना चाहिये और सभा भी आपहीका विश्वास रखती है। यदि विश्वास रखकर काम न किया जाय तो जगतमें कोई काम नहीं हो सक्ता; और तो क्या वह अन्न जिससे हम पेट भरते हैं कदापि पैदा नहीं हो सकता । किसान लोग पृथ्वीके विश्वासपर सैकड़ों रुपयेका धान्य पृथ्वीमें देते हैं तब ही उसके कारण उससे घनाधान्य पैदा करते हैं। अतः हमें विश्वास रखकर परस्पर सहायता करना योग्य है और धादेके रुपयेसे कृष्ण सर्पके समान भय करना योग्य है "। इस प्रस्तावके होनेपर निपाणी, ओठे, हलकरणी, वेड, कलमके पंचोंने अपने यहांके धर्मादेका रुपया समानके फंडोंमें देना स्वीकार किया । वास्तवमें जहां धनाढय दातार दान करानेका प्रस्ताव करता है वहां उसका असर अवश्य होता है । ९ वां प्रस्ताव पशुओंपर दयाका तथा १० वां स्वदेशी वस्तु प्रचारका हुआ । इस पर शीतलप्रसादजीने भी समर्थन करते हुए कहा कि स्वदेश प्रेम हमको बाधित करता है कि हम देशी वस्तुओंकी उत्पत्तिको बढ़ावें तथा आप कष्ट सहकर भी उनको व्यवहार में लावें । वर्द्धमानैय्या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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