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संयोग और वियोग । [ ३०७ न रहनेकी चिन्ता, शरीरका अस्वस्थ रहना, वे तीनों ही कारण ऐसे थे कि जिनसे उसका चित्त आकुलताका स्थान बन रहा था। अब चौथा अपनी प्राणप्यारी पुत्रोके पतिवियोगका महान क्लेश जिससे चतुरबाईकी चिन्ता और संकटका ठिकाना न रहा। उसके दिलसे यह सदमेंपर सदमें दूर ही नहीं होते थे। सेट माणिकचंदनी और स्वयं मगनबाई बहुत समझाती थी पर मोहकी लहरोंने उसे ऐमा विह्वल कर रेक्वा था कि उसको बिलकुल धैर्य नहीं होता था । चित्तके शोकसे शरीर और अधिक अस्वस्थ होगया था।
इधर सेठ माणिकचंदनी अपने पुत्र समान मगनबाईकी आत्माको जानते थे। २, ३ मासमें ही एक वयोवृद्ध, अनुभवी, उदासीन एक विद्वान् पंडित माधवजीको मगनबाईको संस्कृति और धर्म पुस्तक पढ़ानेके लिये नियत किया और मगनबाईको संठने आज्ञा की कि तुम रात्रिदिन विद्या साधनमें ही ध्यान दो इसीसे तेरा भला होगा। तू घरके कामकाज में भी मत फंसे और न व्रत उपवास कर शरीरको सुखावे, तुझे विद्या आजायगी तो तू स्वपरोपकार करके अपना जन्म सफल करेगी। सेठजीके शब्द ये थे
"व्हेन, घर कामकाज अने व्रत उपवास बाजुए मुकीने भणो"
सेठजी मगनबाईको बहन कहकर पुकारते थे। सेटनीने चतुरबाईको भी समझा दिया कि तुम मगनबाईसे कुछ घरका काम न लेना, इसे मन लगाकर विद्याभ्यास करने देना । परमोपकारी पिताकी ताकीदसे मगनबाईजीका चित्त धीरे २ धर्मसाधन व वैराग्यमें जमता गया। पंडितजीके द्वारा धीरे २ बाईने संस्कृत मार्गोपदेशिका व्याकरण दो भाग, थोड़ा अमरकोश, थोड़ी लघुकौमदी, थोड़ी न्यायदीपिका
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