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अध्याय आठवाँ। भी ऐसे संकट आ जाते हैं, आप सम्हले और फिर सर्व कुटुम्बको संसारकी असारता दिखाते हुए सम्हालने लगे ।
अब विधवा मगनबाईनीको रह २ कर पतिकी यादके साथ पिताकी संगति याद आने लगी । सेठजी भी यही विचारने लगे कि अब मगनबाईको यहीं अपने पास रखना चाहिये और
उसके आत्माका कल्याण हो ऐसा मार्ग उसे विधवा मगनवाईको बताना चाहिये। यदि वह सूरत रहेगी उसका पिताद्वारा विद्या- जीवन बिगड़ जायगा। उसकी सासको भ्यास । धर्मविद्याका प्रेम नहीं है। यह वहां पुस्तक
तक न देख सकेगी। घरके कामकाजमें ही फंसकर अपना जन्म खराब करेगी जैसा कि प्रायः होता है कि स्वार्थी साप्त व श्वसुर अपनी विधवा बहूको पढ़ने लिखने व धर्मके तत्व जाननेकी ओर नहीं लगाते। बस उसको एक दासी के समान घरमें रखते हैं। बर्तन मंनवाना, अनान फटकवाना, लड़कीको खिलाना आदि काम अच्छी तरह लेते हैं तब कहीं सबके पीछे बचा खुत्रा व रूखा सूखा भोजन खानेको देते हैं अथवा यदि उम्र छोटी हुई व धनाढ्य हुई तो सास श्वसुर उसे गहने कपड़ेसे लादे रखते हैं। वह सीना परोना करती है व खाली बैठे २ बुरे विचारोंकी सड़क अपने दिलमें बना लेती है। ऐसा विचार कर सेटजी १ महीने पीछे ही मगनबाईजीको बम्बई ले गये। चौपाटीके बंगले में जब यह आई तब माता चतुरबाई इसको लिपट गई और धाड़े मार २ कर रोने लगी ।। चतुरबाईका मन सूक्ष्म बातको गृहण करने योग्य न था । कुटुम्बके मोहमें अति लवलीन था। शरीरकी सुकुमालता, पुत्रके जीवित
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