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संयोग और वियोग |
[ ३०५ लिये किसीका संयोग व वियोग हर्ष या विषादका कारण नहीं है पर ऐसे ज्ञानी जगत में विरले हैं । अनादि मिथ्यात्व के संस्कारसे जानते हुए भी तुर्त परके लोभ में फंस जाते हैं। खेमचंद के शरीरकी दाहादि क्रिया हुई । मगनमतीने शृंगार उतारा । सौभाग्यके वस्त्र आभूषण डालकर उदासीन कपड़े पहने क्योंकि अब इसका जीवन वीतराग विज्ञान स्वरूप धर्मके साथ ही रमण करनेमें वीतनेवाला था । बम्बई तार दिया गया। समाचार पाते ही सेठ माणिकचन्दको इतना कष्ट हुआ कि जैसा कोई हृदयमें वज्रका आयात करे । इस समयका दुःख सेठनीको अपने जन्म में और कभी नहीं हुआ था । सेठजी इसे अपने पुत्रके स्थानपर मानते थे । इसकी युवानी में इसके ऊपर विधवापनेका पत्थर गिरते हुए स्वाभाविक है कि ऐसे दयापूर्ण - मायालु पिताको दुःख हो । माता चतुरबाईजीने जब सुना। उसके रोने कूटने विलखनेका पार नहीं रहा । महान त्रास रूप अवस्था में डूब गई। इसकी हाय हायने सर्व कुटुम्बको जमा कर दिया । माता रूपाबाई आदि सर्व ही ऐसे दुःखित हुए कि जिसका वर्णन नहीं हो सक्ता । सबके मुख फीके पाला पड़े वृक्षकी तरह हो गए । परिणामोंकी विचित्र गति है । एक जातिके भाव एक अन्तमूहूर्तसे अधिक नहीं रहते । नाना संकल्प विकल्पोंको करते हुए जब सेठजीके चित्तमें शात्रोंकी बातें याद आने लगीं-सती सीता, अंजना, द्रोपदी, चन्दना, अनंतमती आदि सतियोंके चरित्र स्मृति में आए । जब शंभूकुमार व चंद्रनखाका चरित्र याद आया तब चित्तमें हुआ कि संसार में सर्व ही प्राणी अपने बांधे हुए कर्मोंके बरा | यह दुःख कोई नया नहीं है बड़े २ पुण्याधिकारियोंके ऊपर
धैर्य
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