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________________ ३०० ] अध्याय आठवाँ। एक रत्नको हाथसे गमा चुकी थी अतएव अब बहुत ही सावधानीसे केशरकी रक्षा करने लगीं। श्री शिखनीकी यात्रासे लोटनेके बाद प्रसन्नबाईजी घरमें सुखसे रहने लगीं । पुत्र ताराचंद इस समय सेठ नवलचंदको ९ वर्पके थे । शालामें पढ़ते थे । रतनचंद ५ पुत्रीका लाभ । वर्षका था जो अपने सुन्दर शरीर और हंस मुखको प्रगट करता हुआ सर्व कुटुम्बको अपनी रमणक्रियासे आनन्दित करता था । अब मिती श्रावण सुदी १३ सं० १९५४ को प्रसन्नबाईजीको एक पुत्रीका लाभ हुआ। यह भी बहुत सुन्दर मुख गुलाबके फूल समान थी। सेठजीने अत्र भी यथायोग्य जन्मोत्सव किया और इसका नाम माणिकमती रक्खा । माताने जैसे पहली दो सन्तानोंको यत्नसे पाला-किसी तरहका ऐसा निमित्त न आने दिया जिससे अकाल मृत्यु हो, उसी तरह अब यह इस पुत्रीको भी बड़ी ही सावधानीसे पालने लगी। इस वक्त सं. १९९४ में सेठ प्रेमचंद सब तरहसे व्यापार में कुशल, धर्ममें लवलीन व सदाचारसे वर्तन सेठ प्रेमचंदजीकी लग्न। करनेवाले हो गए थे। सेठ माणिकचंदजी और माता रूयाबाई इनको बहुत चाहती थी। अब यह २० वर्षके हो गए। माताने बाल अवस्थामें विवाह करने का बिलकुल भी विचार नहीं किया था क्योंकि रूपाबाई बहुत ही विचारशील थी। भावनगरमें एक सेठ गुलाबचंद अमरचंदनी बागड़िया थे उनकी कन्या चंचलबाई थी जो यद्यपि स्वरूपवान थी पर कुछ सुकुमारांगी तथा अशक्त थी इसीके साथ सगाई हुई। वारात Jain Education International For Personal & Private Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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