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२८० ] अध्याय आठवाँ। भाजनशाला खोल दी थी कि किसी जैनी भाईको भोजनपानका कष्ट न हो । बम्बईसे तीनों भाई सर्व कुटुम्ब सहित पालीताना कई दिन पहलेसे आ गए थे। शोलापुरके बहुत महाशय तथा गुजरात देशके व कुछ उत्तर हिन्दुस्थानके यात्री करीब ५००० के जैनीभाई एकत्र हो गए थे । भट्टारक कनककीर्ति प्रतिष्ठाकारक थे । श्री शांतिनाथ स्वामीके धातु व पाषाणके मनोहर बड़े २ बिम्ब निर्माण कराए गए थे। मंदिर भी बहुत ही रमणीक स्वर्गपुरीके मंदिरके समान तय्यार हुआ था । रंगावेजी व पत्थर व चांदीका काम था। जो यात्री पालीताना गए हैं उनको उस मंदिरकी शोभा याद होगी। इस समय सूरतकी गादीके भट्टारक श्री गुणचंद्रनीको निमंत्रण नहीं किया गया था तोभी आप आगए थे। दोनों भट्टारक अपने २ मान पुष्ट करने व पैसा एकत्र करनकी ही धुनमें थे उपदेश व धर्मचर्चाका ख्याल न था । दोनोंमें बात बातपर तकरार होती थी। ज्ञान कल्याणकका दिन माघ सुदी ४ रात्रिको ७ बजे था परन्तु श्री गुणचंद्रजी भट्टारकन बड़ा ही विन्न किया और कहा कि मेरे आम्नायवालोंने जितनी प्रतिमा प्रतिष्ठा कराई हैं उनको सूरमंत्र हमदेंगे तथा हमें कितना रुपया दोगे ? जबतक यह पक्का न होगा कल्याणक न होने देंगे। सूरमंत्र देनेके समयमें परस्पर मतभेद होनेसे रात्रिके १२ बज गए तब कल्याणक हुए। यहां तब भाट लोगोंने झगड़ा किया कि प्रतिमाके आभूषण हमको मिलने चाहिये पर पुलिस व राज्यका उत्तम प्रबन्ध होनेके कारण कोई फिसाद न होकर सर्व शांति रही और सानन्द प्रतिमा माघ सुदी ५ को बिराजमान करदी गई । प्रतिष्ठा
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