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________________ संयोग आर वियोग। [२६७ व अपने पत्रद्वारा भी ग्रंथोंका भाव प्रगट कर रहा हूँ। सोनपतवाले पंडित मथुरादासजीके भाई मेहरचंदनीने सज्जनचितवल्लभ टीका सहित व नाना रामचंद्र नाग जैन ब्राह्मणने निर्वाणकांड, रूपचंद कृत पंच मंगल व त्यागी महाचंद्रकृत समायिक पाठ भाषा छपवाए हैं तथा मदरासमें आपर्ट साहबने शाकटायन व्याकरण छपाया है जो १०)में मिलता है तथा बड़ौदाके महाराजने समाधिशतक व नीतिवाक्यामृत, जैन ग्रंथोंको गुजराती व मराठी भाषांतर कराकर छपानेका विचार किया है। षड्दर्शन समुच्चय, द्वयाश्रय महाकाव्य, बुद्धिसागर आदि जैन कायोंके प्रकाशके लिये बेंगलोरके मैसुर आर्चिलडिकल आफिसमें काम करनेवाले पं० पद्मराजराणाने काव्यांबधि प्रकाश मासिक पुस्तक निकालना प्रारंभ किया है। सेठ माणिकचंदजीने कहा-पंडित प्यारेलालजी कितना ही मना करें परंतु मुद्रित ग्रंथोंका प्रचार अब बन्द नहीं हो सकता और ऐसा विना हुए इस कालमें ज्ञानकी वृद्धि भी नहीं हो सकी। इतना वार्तालाप करके दोनों निद्रित हो गए। .. . बम्बई लौटकर सेठ माणिकचंद आनन्दसे अपने कार्य व्यवहारमें लीन हो गए । यह अपने बंगलेमें रोज प्रातःकाल अनेक समाचार पत्रोंको पढ़ा करते थे । एक दिन एक अखबारमें वीरचंद राघवनीके पत्रकी नकल वांची जो उन्होंने जैन एसोसियेशन आफ इंडियाको भेनी थी और जिसमें चिकागो व अन्यत्र जैनधर्मके व्याख्यानोंसे क्या २ लाभ हुआ सो लिखा था। यह पत्र जैनबोधक अंक १०९ माह सप्टेम्बर १८९४ में मुद्रित है जिसको उपयोगी जानकर हम उसकी पूरी नकल नीचे प्रगट करते हैं: Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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