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२६६ ] अध्याय आठवाँ । अपने डेरेपर आकर सेठ हीराचंद और सेठ माणिकचंदजी
बातें करने लगे कि अभी जैनियों में सभाका सेठ हीराचंद और सेठ शौक बहुत कम है तथा अज्ञानता बहुत है। माणिकचंदजीकी इसका कारण यही है कि हमारे भाई शास्त्र वार्तालाप। स्वाध्याय नहीं करते। इसके न होनेमें एक
अंतराय सुलभतासे ग्रंथोंको नहीं प्राप्त करना है। यदि ग्रंथ मुद्रित हो जावे तो हरएक भाई इच्छानुसार लेकर पढ़ सक्ता है। देखो अपने मंदिरों में प्रायः पोथियोंमें भक्तामरजी, सूत्रनी, व पूजा पाठ अशुद्ध लिखे मिलते हैं। लोग अशुद्ध ही पाठकर जाते हैं। अर्थ पर तो कुछ ध्यान देते नहीं, पर छापनेमें यह फायदा है कि एक प्रति शुद्ध करली गई तो उससे हज़ारों प्रति शुद्ध तय्यार हो सक्ती हैं, देखो मैं आपको (पुस्तक हाथमें देकर) यह भक्तामरस्तोत्र दिखाता हूं इसमें गुजराती भाषामें अर्थ व पद्य देकर आमोद निवासी सेठ हरजीवन रायचंद शाहने छपवाया है। इससे हमारे गुजराती भाई स्तोत्र का शुद्ध पाठ भी कर सकेंगे व अर्थका भी बोध होगा कितना बड़ा लाभ है। गुजराती अर्थ सहित यह पहली ही पुस्तक है जो गुजरातके दिगम्बर जैनीने छपवाई है। सेठ माणिकचंदने उस पुस्तकको इधर उधर पढ़ा। बड़े ही प्रसन्न हुए और उसका पता ठिकाना अपनी नोटबुकमें लिख लिया। आगे चलके सेठ हीराचंदनीने कहा कि अब ग्रंथोंका मुद्रण बंद नहीं हो सक्ता। आप जानते ही हैं कि मैंने क्रियाकोश रत्नकरंड श्रावकाचार, संस्कृत पूजापाठ, भजनसद्बोध मालिका आदि कई ग्रंथ प्रसिद्ध कर दिये हैं
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