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________________ जीवन चरित्रकी आवश्यकता । [ ५ कारण होनेपर भी न तो द्रव्य पैदा कर सक्ते और न न्याय सहित भोग ही पा सक्ते हैं । इस जगतमें वे ही मानव अपने जीवनके सुयशकी सुगंधको चारों ओर फैला जाते हैं जो अपने जीवन की घड़ियों को उनके पल व विपलोंको, आवली व समयोंको सम्हाल २ कर काम में लेते - अर्थात् जो अपने आत्माको परमात्म शक्तिका भंडार निश्चय करते हुए उस शक्तिके खिलाने व उसीकी प्रफुल्लनामें परम सुख अनुभव के श्रद्धानको रखते हुए गृही जीवन में शरीरके इन्द्रिय सम्बन्धी विषयोंकी तुच्छ परवाह रखते हुए अर्थ व कामकी सिद्धि करते हुए परके उपकारमें अपनी शक्तियोंका उपयोग करना अपना कर्तव्य समझते हैं और रात्रि दिन सर्व जीवमात्रका कैसे हित हो इस चिन्तामें, इस उद्योगमें, इस धुन में मस्त रहते हैं । ऐसे परोपकारियोंसे अधिक जीवों का हित होता और उन जीवोंको अपनी उन्नतिका मार्ग सूझता है। जो मानव इस पृथ्वीपर जन्म ले केवल अपनी इन्द्रियों की गुलामीमें ही अपने इस जीवनको बिता कर मृत्युकी शय्यामें सो जाते हैं वे यहां भी अपने जीवनसे बहुतों की हानि करते हैं और परलोकमें भी उनकी आत्माको योग्य पर्यायका लाभ नहीं होता। उनका जीवन पाशविक जीवनसे भी गया- बीता है मानवमें मानसिक, वाचनिक और कायिक ये तीन शक्तियां बड़ी बलवती हैं । जो इनको लोहेकी तरह बेकाम डाल रखते हैं उनकी शक्तियोंमें लोहेकी तरह जंग लग जाता है और वे बेचारे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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