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अध्याय पहिला ।
आत्मा या परमात्माकी ओर तन्मय होता हुआ वीतरागमय हो । यही परिणाम कर्मोंसे मुक्ति देनेवाला है। इसके अलाममें उस परिणामको भी धर्म कहते हैं जो आत्माको पापोंसे बचाकर पुण्य कार्यों में लगाता है पर वीतरागरूप होनेकी चाहसे मिला होता है। जिसका परिणाम क्रोध, मान, माया, लोभ कषायोंकी मंदतामें होता है। वह शुभ परिणाम है और जो इन कषायोंकी अतिशय मंदतामें होता है उसे शुद्ध या वीतराग परिणाम कहते हैं। जो इन दोनोंसे रहित तीव्र कषाय युक्त होकर पांचों इन्द्रियोंके भोगोंमें अनुरागी व पर अहितमें निडर व परकी बुराई व कष्ट देनेमें उत्सुक होता है उसे अशुभ परिणाम कहते हैं । यह अधर्म है क्योंकि पापका कारण है।
जो मानव श्रीऋषभदेव, अजितनाथ, चंद्रप्रभु, शीतलनाथ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ व महावीर सरीखे उत्कृष्ट क्षत्रियोंके समान आत्माको शुद्ध करना चाहते हैं वे केवल वीतराग भावके ही रसिक हो योगाभ्यासमें लीन हो साधुपनेके जीवन में रह मुख्यतासे अपना नर जन्म सफल कर मोक्ष पुरुषार्थ साधते हैं । परंतु जो इतनी कषायोंकी हीनता करने में असमर्थ हैं वे घरहीमें रह धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरुषार्थ साधते हैं। यद्यपि अर्थ याने लक्ष्मीका लाभ, काम याने न्यायपूर्वक इन्द्रियोंके भोग, शुभ परिणामसे किये हुए पुण्य कमको अपना अंतरंग कारण रखते हैं पर इनके लिये न्यायपूर्वक बाहरमें उद्यम या पुरुषार्थ किया जाता है तब ये सिद्ध होते हैं। जैसे दो पहियोंके बिना गाड़ी नहीं चलती ऐसे ही अंतरंग और बहिरंग दोनों कारणोंके बिना अर्थ और काम नहीं होते । जो आलसी बाहरी उपायोंमें सुस्त होते हैं वे अंतरंग
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