________________
२४२] अध्याय सातवाँ । तक नहीं हुआ है जिसकी बहुत आवश्यकता है ऐसी ध्रौव्य संस्था चारों दानोंके लिये हरएक नगरमें होना चाहिये । दानार्थ लक्ष्मी खरची हुई ही स्व और परका उपकार करती है:
नाम चंदा देनेवाले दातारोंके । ७५०१) सेट हरीभाई देवकरण ६१०१) सेठ हरीचंद परमचंद ५७०१) ,, वम्ता खुशाल ४२०१) ,, मोतीचंद परमचंद २५०१),, सखाराम खुशाल १५०१),, रायचंद खुशाल १३०१) ,, रामचंद साकला १२०१) ,, सीखाराम नेमचंद ११०१) ,, मोतीचंद खेमचंद १००१),, नानचंद खेमचंद १००१) ,, पदमसी निहालचंद १००१),, जोतीचंद नेमचंद १००१), गौतम नेमचंद १००१),, पदमसी कस्तूर १००१), मलुक.चंद गणेश १००१), रामचन्द गोवनजी
रु. ३८११६) यह संस्था थोड़े ही दिनों में बड़ी उपयोगी हो गई। जैन बोधक अगस्त सन् १८९२ में कार्तिकसे ज्येष्ठ तक ८ मासके सदावर्त बटनेका हिसाब यह है कि ३७३ जैन व २९८५ अनैनोंको व्यवहारके पदार्थ दिये गए । इन ३३९७ में ११७२ प्राणी बिलकुल अशक्त थे । तथा औषधालय में ८०४ रोगीने दवा ली जिनमें ४ १९ अच्छे हुए।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org