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लक्ष्मीका उपयोग |
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दीप धूपसे पूजा करना ऐसा त्रिकाल पूजाका अर्थ है । भट्टारक विशालकीर्तिके पुस्तक भंडारकी सूची जैन बोधक अंक २७-२८ नवम्बर व दिस
भट्टारक विशालकीर्ति । सं. १८८७ में मुद्रित हैं । इनमें अपूर्व ग्रंथ ये हैं । युक्तयनुशासन सटीक, २ अष्टसहस्त्री
सुनहरी स्याहीकी लिखी हुई, ३ यति प्रायश्चित्त, ४ क्रियाकलाप सामायककी संस्कृत टीका, ५ आचारसार वृत्ति वसुनंदी सिद्धांतिकृत, ६ श्वेताम्बर पराजय ग्रंथ, ७ परमत सार ग्रंथ, ८ पच्चखान भाषा, ९ रमल शास्त्र संस्कृत, १० वैद्यसार ग्रन्थ सटीक, ११ एकाक्षरी निघंट, १२ चंडकृत व्याकरण प्राकृत ।
गु० संवत १९४३ के जाड़े में फिर सेठ माणिकचंदजी के चित्तमें तीर्थ यात्रा करनेकी उमंग हुई।
यात्रा श्री त्रुंजयादि । इस समय भी सिवाय नवलचंदजी और उनकी पत्नी के सर्व ही सेठजीका परिवार
पानाचंदजी तथा रूपाबाई आदि श्री केशरियाजी गिरनारजी सेतुंजयजी आदिकी यात्राको रवाना हुए। साथमें करीब २०० मनु ष्योंका संघ था। प्रथम ही श्री शेत्रुंजयजी पहुंचे। उस समय यहाँ पालीतानामें नीचे एक पुरानी धर्मशाला थी जो अब भी वर्तमान नए मंदिरजीके पीछे है तथा नये मन्दिजीके सामने एक छोटेसे मकान में श्री पार्श्वनाथ स्वामीकी एक छोटी प्रतिमा विराजमान थी । पहाड़पर दो मंदिर जुने थे जो अब भी हैं । एक छोटेको श्वेताम्बरियोंने छीन लिया है। बड़ा मंदिर कहते हैं कि किसी धनाढ़य भैंसा साहुने बनवाया था। इसमें मूल नायक श्री शांतिनाथ
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