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अध्याय सातवा |
स्वामी हैं, संवत १६८६ है । इस पर्वत से दि० जैन शास्त्रानुसार गत चतुर्थ कालमें श्री युधिष्ठिर मीमसेन और अर्जुन ऐसे तीन पांडव और ८ कोड मुनि मोक्ष पधारे हैं। सेठजी संघ सहित पहुंचे तो वहाँ ठहरने की बहुत तकलीफ मिली क्योंकि पुरानी धर्मशालाको राज्यने रोक रक्खा था वहाँ कोई प्रबन्ध ठीक नहीं पाया जिससे चित्तमें बहुत उदासी हुई। उस समय वहाँ कोई मुनीम भी नहीं था; केवल पुजारी व नौकर थे, सो भी बहुत ही अव्यवस्थित । सेठजीने, श्वेताम्बर समाजके बड़े २ मंदिर व रमणीक धर्मशालाएं.. देखकर और अपनी स्थितिका मिलानकर बहुत ही खेद माना और दिगम्बरियोंके आलस्यकी अतिशय निन्दा की ।
यहाँ पहले भवानीप्रसाद नामका एक दिगम्बरी चालाक मुनीम या सो संवत १९४१ तक काम करता रहा था । उस समय राजा पालीताना और श्वेताम्बरियोंमें बहुत झगड़ा चलता था । राजा और भवानीप्रसादका मेल था । इस अवसर को देखकर यह चाहता था कि शहरमें एक बड़ा मंदिर बनवानेको राजासे जगह लेलूं | सो उद्योग करके राजासे इसने वह जगह जहाँ पर अब नया मंदिर है लेली । राजाने बिना किसी लिखा पढ़ीके देदी। यहाँ कुछ मकान बने हुए थे। यह राजाको मुकदमे में मदद करता था । भावनगर के दिगम्बर जैन पंचोंके हाथमें यहाँका प्रबन्ध था । वहाँ दिगम्बरी व श्वेताम्बरीमें मेल था । श्वेताम्बरियोंने मुनीम भवानीप्रसादकी ऐसी शिकायतें की जिससे भावनगर के लोग भवानीप्रसादसे नाराज़ हो गए । भवानीप्रसादने जमीन लेकर भावनगरखालोंसे रुपया मांगा कि मंदिरका काम शुरु हो परन्तु उन्होंने मूनीमको रुपया नहीं भेजा तब इसने
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