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अध्याय सातवाँ।
मामने धवलादि ग्रंथ जो सिद्धान्त ग्रन्थोंके नामसे प्रसिद्ध हैं दर्शनार्थ वहाँके पट्टाचार्य और पंचोंने निकाले उस समय सर्व संघको बड़ा आनन्द हुआ । ब्रह्मसूरी शास्त्रीका मूलबिद्री में बहुत सन्मान था। पुराने ताड़पत्र पर लिखे हुए कुछ पत्रोंका संग्रह भीतर भंडारसे पंच लोग निकाल कर लाते थे और उसीको दूरसे दर्शन कराकर भेट चढ़वाकर लोगोंको बिगकर देते थे। जब ब्रह्मसूरिजीने इन पत्रोंको पढ़ा तो इनमें कुछ और ही वर्णन पाया । धवलादि ग्रंथोंका कुछ भी अंश न था क्योंकि सुरिनी वयोवृद्ध विद्वान थे । इनको मालुम' था कि उनमें गुणस्थान मार्गणा स्थान आदि सम्बन्धी सूक्ष्म चर्चा है तथा श्री गोमट्टसार इन्हीके कुछ अंशको लेकर श्री नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने लिखा है तब सूरिनीको बड़ा आश्चर्य हुआ
और पट्टाचार्यनीसे कहा कि यह तो सिद्धान्त ग्रन्थ नहीं है आप भीतरसे और ग्रंथ निकलवाइये, उनमें श्री धवलादिको ढूंगा जावे । पंचलोग कुछ लज्जित हुए, भीतरसे और जीर्ण ताड पत्रों पर लिखें हुए ग्रन्थ लाए। उन सबको देखकर सुरी शास्त्रीने धवल और जयधवल ग्रंथोंको छांटकर अलग किया और उन्हें अति विनयसे बिराजमान कर सूरि शास्त्रीने बहुत ही मिष्ट ध्वनिसे मंगलाचरण पढ़के उसका अर्थ किया तथा कुछ और भी सुनाया। उस समय सेठजीने पंचोंसे निवेदन किया कि यदि आप
लोग शास्त्रीजीसे इस ग्रंथको दोतीन दिन धवलादि ग्रंथोंका तक सुनैं तो आपको और हमें सर्वको पढ़ाजाना। विशेष लाभ होवै । उधर बाबा दुलीचंदजीने
भी यही इच्छा प्रगटकी। उस समय थोड़ासाः
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