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________________ लक्ष्मीका उपयोग | अध्याय सातवाँ । -- Jain Education International [ १८७ लक्ष्मीका उपयोग | सेठ माणिकचंदजीको अपने पूज्य पिताके वियोगका बड़ा भारी दुःख था, रह रह कर यह खयाल न लगाना । शुभ कार्यमें देर आता था कि हमने कोई भी भारी दान अपने पितासे नहीं कराया यह हमने बड़ी भूल की । यद्यपि मेरे दिल में तो बहुत दिनसे था कि पिताजी से प्रार्थना करूं कि वे कुछ आज्ञा देवें पर अभी क्या जल्दी है फिर करलेवेंगे इसी खयालसे मैं पिताजीसे कुछ भारी दान न करासका । वास्तवमें जो दान धर्म आदि कार्य करने हों उनको जब सोचे तब ही कर डाले । पीछे करूंगा, इस विलम्ब से बहुधा पछताना पड़ता है क्योंकि हम कर्मभूमियोंकी आयुकी समाप्ति होने के कालका कोई निश्चित समय नहीं है। खैर, यद्यपि अब पिताजीकी आत्माको दानका पुण्य नहीं होगा तोभी मैं उनका यश स्थिर करनेके लिये जहां तक मेरा बरा होगा कुछ दानधर्मके बड़े २ काम अवश्य करूंगा । अब मुझे लक्ष्मीको केवल एकत्र ही नहीं करनी चाहिये किन्तु और भी अधिक दानमें लगाकर सफल करना चाहिये, कारण यदि मैं और पानाचंद भाई मोतीचंदकी तरह अकाल मृत्युके वश हुए तो फिर इतना धन प्राप्तिका परिश्रम वृथा ही चला जायगा, इस भांति विचार कर एक दिन माणिकचंदजीने भाई पानाचंद और नवलचंदसे एकान्त में बात की कि हमलोगोंने For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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