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सन्तति लाभ ।
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संसार की ही बड़ी विचित्र दशा है । ६ वर्ष पहले जिस स्त्रीको अपने पतिके सम्बन्धसे सांसारिक सुखका लाभ हुआ व ५ मास ही पहले जिसको एक अति उत्तम पुत्रका लाभ होकर सन्तोष हुआ उसीको आज अपने प्राणप्रियका वियोग सहना पड़ा ! कर्मो के उदयकी दशा बड़ी ही विचित्र है । जैसे कहीं धूप आती है और थोड़ी देर बाद वही पर छाहीं पड़ जाती है और जहां पर छाहीं होती है वहीं फिर धूप आ जाती है, ऐसे ही पुण्य कर्मके स्थान पर पाप और पापके स्थान पर पुण्य अपनी रंगत दिखलाते हुए अज्ञानीको कभी महा आनन्द व कभी महाशोक में डाल देते हैं परंतु ज्ञानीके लिये एक मात्र नाटकका खेल है। ज्ञानी अपने शरीर के सम्बन्धको ही त्यागना चाहता है। उसके यह भावना है कि यह आत्मा शांत आनन्दमय अवस्थाका लाभ लेवै और सदा ही मुक्त रूप रहे अतएव वह ऐसा विचारता
श्लोक तप्तोऽहं देहसंयोगाज्जलं वानलसंगमात् इह देहं परित्यज्य शीतीभूताः शिवैषिणाः (आ० शा ० २५४)
भावार्थ – मैं देह संयोगसे उसी तरह दाहको पा रहा हूं जिस तरह अग्निके सम्बन्धसे जल गर्म होकर जला करता है जो मोक्षके इच्छुक साधुजन हैं वे इस देहको त्यागकर शांत हो गए हैं। ऐसा २ विचार करनेवाले ज्ञानीजीवको अपना व दूसरेका देह आत्मा से अलग हो जाय उसमें कोई विषाद नहीं होता । रूपाबाईने यद्यपि अनेक शास्त्र सुने थे और अच्छी तरह आत्मा और देहके भेद विज्ञानको जानती थी, केवल आत्मोन्नतिकी भावनासे धर्म अतिप्रेम साधन करती थी तौ भी इस समय यकायक
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