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________________ अध्याय छठा। शोक नोकषायके तीव्र उदयसे इसका चित्त धैर्यसे चलायमान हो गया, मन म्लानित हो गया, तरह २ के विकल्प आने लगे, आंखोंसे भी अश्रुधारा वहने लगी, मेरी कौन रक्षा करेगा ? इस छोटे पुत्रको कौन खिलाएगा ? इसको कौन विद्या पढ़ाएगा ? में कैसे दिन काटूंगी आदि अनेक भावोंके आवेशोंसे मन क्षोभित हो समुद्रकी तरह उगमगाने लगा। __ इतनेहीमें खबर पहुँच गई कि सेठ मोतीचंद एकाएक चलवसे। यह संवाद सेठ हीराचंदको वज्रके समान हृदय भेदनेवाला हुआ। तीनों भाई भी इसे सुनकर, आज हमारे शरणभूत कमरेका एक खंभा टूट गया, आज हम तीन खंभेवाले ही रहकर इस गार्हस्थ्यके वोझको कैसे सम्हाल सकेंगे इत्यादि चिंताओंमें डूब गए । अति उदास मुख हो घरेमें आए और मृत मोतीचंदके जड़माई निर्जीव कलेवरको आभा रहित देखकर कुछ कह सुन न सके और मनमें अति पश्चाताप करते हुए कि हम इनके मरणके अवसरमें इनको कोई धर्मोपदेश न दे सके और न भगवानका पवित्र नाम सुना सके और न दान पुण्य कुछ करा सके। थोड़ी देरमें बम्बईके सारे बाजारमें खबर पहुंच गई कि सेठ हीराचंदके बड़े पुत्र युवावस्थामें ही शरीर त्याग गये। अनेक कुटुम्बीजन व मित्र मुलाकाती जमा हो गए अज्ञानी आंसु भरभरकर रोते हुए और ज्ञानियोंने वस्तुका स्वरूप विचार कर सन्तोष धारण किया । हीराचंद जीने मृत कलेवरको जन्तुओंकी विशेष उत्पत्तिके भयसेपड़ा रखना उचित न समझा और तत्काल स्मशान भूमिमें लिया जाकर दग्ध क्रिया की। इस समय और सबने ही किसी न किसी तरह अपने चित्तको धैर्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003979
Book TitleDanvir Manikchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kishandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages1016
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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