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१७४ ] अध्याय छठा ।
सेठ मोतीचंदको यद्यपि पुत्रके लाभसे बहुत सन्तोष हुआ पर इनको भगन्दरके रोगने बहुत व्याकुल कर रखा था। कितनी ही औषधिय की पर कुछ शान्त न हुआ-रोगको कम होनेके बदले वद्धित देखकर पूज्यपितासे कहा कि अब चातुर्मास वीत गया है ईडरसे कुटुम्बको बुलाना चाहिये मगसर मासमें रूपाबाई पुत्र रत्न प्रेमचंद के साथ बम्बई आई परंतु अपने पतिके रोगको बढ़ा हुआ देखकर बहुत खेदित हुई । मोतीचंदनी बीमारीसे बहुत दुःखित थे पर अपने धर्मके स्मरणमें सावधान थे असातावेदनीय कर्मका उदय है ऐसा मानकर चित्तमें धैर्य लाते थे।
और जब कभी अपने पुत्रका मुख देखते तो प्रफुल्लित हो जाते थे क्योंकि यह पुत्र रत्न हरएकको बहुत ही प्यारा लगता था। पुत्रके जन्मको ५ मास ही वीते थे कि फागुणमासमें एकाएक
मोतीचंद बहुत ही अधिक बीमार हो गए मोतीचंदका परलोक । और ऐसे वक्त में कि जब रूपाबाई घर काममें
लगी थी पिता और भाई सब घरसे बाहर थे। यह अपने कमरेमें लेटे हुए ही यकायक अरहंत अरहंत कहते हुए अपने इस शरीरको छोड़कर चल दिये । थोड़ी देर बाद जब रूपाबाई छोकरेको लिये हुए कमरेमें आई और अपने पतिको बहुत ध्यानसे देखा तो इसे निश्चय हो गया कि इनका आत्मा इस शरीरको छोड़कर चल दिया है। रूपाबाईका स्वरूपवान मुख एकाएक कुम्हला गया । उसके मुखको प्रेमचंद आंख खोलकर देखता है तो आश्चर्यमें भर जाता है । रूपाबाई एकाएक बैठ गई और नीचा मुख करके शोक सागरमें निमग्न हो गई।
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